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________________ ( 35 ) यदि योगनिमित्त कर्म द्रव्य रूप स्वीकार करते हैं तो वह घातिक कर्म द्रव्य रूप है या अघातिक कर्म द्रव्य रूप है। घाति-कर्म-द्रव्यरूप इसलिए नहीं है कि उसके अभाव में सयोगी केवली में लेश्या का सदभाव रहता है। अघातिकर्मंद्रव्य रूप इसलिए नहीं है कि उसके सद्भाव में अयोगिकेवलिगुणस्थान में लेश्या व योग का अभाव रहता है । अतः अन्तत: योगान्तर्गत द्रव्यरूप लेश्या स्वीकार करनी चाहिए। योगान्तर्गत द्रव्य सभी कषायों को उदय में लाने वाले होते हैं—ऐसा देखा भी जाता है, जैसा कि पित्त प्रकृति की वस्तुओं में देखा जाता है, यथा पित्तप्रकोप से महान प्रवर्धमान कोप होता है तथा और भी बाह्य द्रव्य कर्मों के उदय, क्षय और उपशम के कारण होते हैं। यथा-ब्राह्मी औषधि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशय का कारण होती है और सुरापान ज्ञानावरणीय कर्म का कारण होता है। तब फिर किस प्रकार युक्तायुक्त विकल्पता उत्पन्न होती है। दधि भोजन निद्रा रूप दर्शनावरण कर्म का कारण होता है- क्या ये सब योगद्रव्य नहीं है। इसलिए लेश्या के कारण शास्त्रान्तर में स्थिति पाक-विशेष कहा जाता है उसी को स्थिति पाकनाम का अनुभाग कहते हैं। कषायोदयान्तर्गत कृष्णादि लेश्याओं के परिणाम उसके कारण होते हैं। वे परमार्थतः कषायों के अन्तर्गत रहने के कारण कषाय स्वरूप ही है, केवल योगान्तर्गत द्रव्य सहकारी कारणों के भेद और वैभिन्य से कृष्णादि भेद होते हैं और तरतम भाव से विभिन्न अनुभव होते हैं। इसलिए कर्म प्रकृतिकार शिवशर्माचार्य ने 'शतक' नाम के ग्रन्थ में जो कहा है"स्थिति-अनुभाग कषाय से बनता है-वह समीचीन ही है। क्योंकि कषायोदय के अन्तर्गत कृष्णादि लेश्या परिणाम भी कषाय रूप है। इसलिए जो कहा जाता है-योग से प्रकृति प्रदेश बंध और कषाय से स्थिति-अनुभाग बध होते हैं। इस वचन से लेश्या को प्रकृतिप्रदेश बंध का हेतु ही माना जाय, न कि कर्म स्थिति का हेतु-यह भी समीचीन नहीं है। क्मोंकि इससे यथोक्त भाव का ज्ञान नहीं होता है और लेश्या स्थिति का हेतु नहीं है, बल्कि कषाय है, लेश्या तो कषायोदय के अन्तर्गत अनुभाग का हेतु है अतएव "स्थितिपाक विशेषस्तस्य भवति लेश्या विशेषेण" यहाँ पाक शब्द का ग्रहण अनुभाग को बतलाने के लिए किया गया है-ऐसा कर्मप्रकृति की टीका में स्पष्ट किया है और उनके सिद्धान्त का परिज्ञान भी ठीक नहीं है। जो कहा गया है-कर्मों का निष्यन्द झड़ना लेश्या है-ऐसा स्वीकार करने पर जब तक कषायोदय रहेगा तब तक कर्म बद्धता भी रहेगी और कर्म स्थिति का कारण भी रहेगा-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि लेश्या के अनुभाग बंध का हेतु होने से स्थिति बंध के हेतु होने योग्य नहीं रह जाती। यदि कर्म निष्यन्द लेश्या है तो वह कर्मकल्क ( सार रहित कर्म ) है या कर्म सार । कर्मकल्क इसलिए नहीं है कि उसके सार रहित होने के कारण उत्कृष्ट अनुभाग बंध के हेतु होने की उसमें योग्यता नहीं रहती है। और लेश्यायें उत्कृष्ट अनुभाग बंध के हेतु भी होती है। तब तो कर्मसार ही ग्रहण करना होगा-इस पक्ष के स्वीकार करने पर यथायोग्य आठों ही कर्मों के विपाक का वर्णन प्राप्त होता है, लेकिन किसी कर्म का लेश्या रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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