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________________ ( १९० ) टीका-एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो, पुत्वं परविदत्तादो। णवरि वाघादेण एत्थ एगसमयपरुवणा परवेदव्वा। औदारिककाययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं। क्योंकि औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों की परंपरा के सभी कालों में विच्छेद का अभाव है। एक जीव की अपेक्षा औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टियों का जघन्यकाल एक समय है। यहाँ पर मरण, गुणस्थानपरावर्तन और योगपरावर्तन की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा करनी चाहिए। किन्तु यहाँ व्याघात की अपेक्षा एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि वह काययोग का अविनाभावी है। उक्त जीवों का उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। जैसे-एक तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव, बाईस हजार वर्ष की आयुस्थिति वाले एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल से पर्याप्तपने को प्राप्त हुआ। पुनः इस औदारिकशरीर के अपर्याप्तकाल से कम बाईस हजार वर्ष औदारिककाययोग के साथ रह करके पुनः अन्य योग को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से कुछ कम बाईस हजार वर्ष हो जाते हैं। · अथवा, यहाँ पर देव नहीं उत्पन्न कराना चाहिए। क्योंकि, देवों से जाकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले जीव के जघन्य अपर्याप्तकाल नहीं पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक औदारिककाययोगियों का काल मनोयोगियों के काल के समान है। अस्तु-विशेष बात यह है कि यहाँ पर व्याघात की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए। •०४ औदारिकमिश्र काययोगी जीवों की काल स्थिति ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। -षट् खण्ड ० १ । ५ । सू १८२ । पु ४ । पृष्ठ० ४१९ टीका-ओरालियमिस्सकायजोगीसुमिच्छादिट्टिसंताणवोच्छेदस्स सम्वद्धासु अभावा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं । -षट० खण्ड० १ । ५ । सू १८३ । पु ४ । पृष्ठ० ४१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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