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________________ ( १६१ ) सम्माइट्रीहि सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-उववादपरिणदेहि चउण्हं लोगाणम संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो, वाणवेतर-जोदिसियभवणवासिएसु एदेसिमुववादाभावा; सम्मादिदिउववादपाओग्गसोधम्मादिउवरिमविमाणाणं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे चेव अवट्ठाणादो। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। ___ अस्तु इस सूत्र की वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्र के समान है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय और उपपादपदपरिणत वैक्रियिक मिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने अतीतकाल में सामान्यलोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों के विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्घात—ये पद नहीं होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थान की स्पर्शनप्ररूपणा इसी प्रकार से कहना चाहिए। तियंगलोक के संख्यातवें भाग को व्याप्त करके स्थित वाणव्यंतर और ज्योतिष्क देवों के असंख्यात आवासों में सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पति देखी जाती है। स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना, कषाय और उपपादपरिणत वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों ने सामान्य लोकादि चार लोकों का असंख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है क्योंकि वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और भवनवासी देवों में इनका, अर्थात् वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों का उपपाद नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि जीवों के उपपाद के प्रायोग्य सौधर्मादि उपरिम विमानों का, तिर्यग्लोक के असंख्यातवें भाग में ही अवस्थान देखा जाता है ।। •०७ आहारक काययोगी तथा आहारकमिश्र काययोगी को क्षेत्र-स्पर्शना आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जविभागो। --षट० खण्ड० १ । ४ । सू ९५ । पु ४ । पृष्ठ० २६९ टीका-एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरुवणा खेत्तभंगा। मत्थाणसत्याणविहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायपरिणदेहि आहारकायजोगिपमत्तसंजदेहि तोदे काले चदुण्हं लोगाणमसंखज्जविभागो माणुसखेत्तस्सं संखेज्जदिभागो फोसिदो। उववाद-वेउव्वियं गत्थि । मारणंतियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो। आहारमिस्सकायजोगिपमत्तसंजदेहि सत्थाणवेदण-कसायपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसियो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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