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________________ ( १५७ ) अस्तु औदारिकमिश्र काययोगी जीवों के विहारवत्स्वस्थान और वैक्रिय समुद्घात इन दो पदों का अभाव भले ही रहा जावे, तथापि पदों की संख्या की विवक्षा न करने से उनमें विद्यमान पदों के स्पर्शन की ओघ पद के स्पर्शन के साथ तुल्यता है ही अतः ओघपना विरोध को प्राप्त नहीं होता है । ___ औदारिकमिश्रकाययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। __ अस्तु इन तीनों ही गुणस्थानों के स्वर्शन की वर्तमानकालिक प्ररूपणाक्षेत्र के समान है। स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना, कषाय, समुद्घात और उपपादपदपरिणत औदारिकमिश्र काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों ने अतीतकाल में सामान्य लोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग् लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यागुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। चूंकि देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच सासादन-सम्यगदृष्टि जीवों में (यथासंभव) तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर शरीर को ग्रहण करके औदारिकमिश्र काययोग के साथ सासादन गुणस्थान को धारण करते हुए अतीतकाल में बीच के समुद्र को छोड़ कर संख्यात अंगुल बाहल्यवाले संपूर्ण राजुप्रतररूप क्षेत्र का स्पर्श किया है अत: तिर्यग् लोक का संख्यातवां भाग यह वचन युक्तियुक्त है । यहाँ पर विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक और मारणान्तिक पद नहीं होते हैं, क्योंकि इन पदों का औदारिकमिश्रकाययोग के साथ अवस्थान का विरोध है, किन्तु उपपाद पद होता है क्योंकि सासादन गुणस्थान के साथ अक्रम से ( युगपत् ) उपात्त भवशरीर के प्रथम समय में उपपाद पाया जाता है। मिथ्यादृष्टि जीवों के भी मारणान्तिक और उपपाद पद पाये जाते हैं। क्योंकि अनंत-संख्यक औदारिकमिश्र काययोगी एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि, स्वस्थान और परस्थान में अपक्रमण और उपक्रमण करती हुई, अर्थात् जाती-आती पाई जाती है। स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना, कषायसमुद्धात और उपपादपदपरिणत औदारिकमिश्र काययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों में अतीत काल में सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। औदारिकमिश्रकाययोग असंयत सम्यग्दृष्टियों के उपपाद क्षेत्र से तिर्यग लोक को संख्यातवां भाग कैसे कहा है - यह एक प्रश्न है। __इसका समाधान यह है कि नहीं, क्योंकि पूर्व में तिथंच और मनुष्यों में आयु को बांधकर पीछे सम्यक्त्व को ग्रहण कर, और दर्शन मोहनीय का क्षय करके बांधी हुई आयु के वश से भोगभूमि के रचनावाले असंख्यात द्वीपों में उत्पन्न हुए तथा भवशरीर के ग्रहण करने के प्रथम समय में वर्तमान, ऐसे औदारिकमिश्रकाययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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