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________________ ( 22 ) इंगित किया है-यह विवेचनीय है। यहां प्राचीन आचार्यों ने योग को भी परिणाम में ग्रहण किया है। लेश्या और योग ; लेश्या और अध्यवसाय का कैसा सम्बन्ध है यह भी विचारणीय विषय है। क्योंकि अच्छी-बुरी दोनों प्रकार की लेश्याओं में अध्यवसाय प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों होते हैं। इसके विपरीत जब परिणाम अशुभ होते हैं, अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं तब लेश्या अविशुद्ध-संक्लिष्ट होनी चाहिए। जब गर्भस्थ जीव नरकगति के योग्य कर्मों का बंधन करता है तब उसका चित्त, उसका मन, उसकी लेश्या तथा उसका अध्यवसाय तदुपयुक्त होता है। उसी प्रकार जब गर्भस्थ जीव देव गति के योग्य कर्मों का बंधन करता है तब उसका चित्त, उसका मन, उसकी लेश्या तथा उसका अध्यवसाय तदुपयुक्त होता है। इससे भी प्रतीत होता है कि इन तीनों का - मन व चित्त के परिणामों का, लेश्या और अध्यवसाय का सम्मिलित रूप से कर्म बंधन में पूरा योगदान है। इसी प्रकार कर्मों की निर्जरा में भी इन तीनों का पूरा योगदान होना चाहिए । यद्यपि अयोगी के भी महानिर्जग होती है। जीव योग द्रव्यों को ग्रहण करता है तथा पूर्व में गृहीत योग द्रव्यों को नवगृहीत योग द्रव्यों के द्वारा परिणत करता है। जीव द्वारा योग द्रव्यों का ग्रहण नाम कर्म व मोहनीय कर्म के उदय से होता है। यद्यपि इस विषय पर किसी भी टीकाकार का कोई विशेष विवेचन नहीं है। आचार्य मलयगिरि का कथन है कि शास्त्रों में आठ कर्मों के विपाकों का वर्णन मिलता है लेकिन किसी भी कर्म के विपाक में लेश्या तथा योग रूप विपाक उपदर्शित नहीं है। सामान्यतः सोचा जाय तो योग द्रव्यों का ग्रहण किसी नाम कम के उदय से होना चाहिए। नाम कर्मों में ही शरीर नाम कर्म के उदय से ही ग्रहण होना चाहिए। यदि योग का लेश्या के साथ अविनाभाव सम्बन्ध माना जाय तो द्रव्य योग व द्रव्य लेश्या के पुदगलों का ग्रहण शरीर नाम कर्म के उदय से होना चाहिए। क्योंकि योग शरीर नाम कर्म की परिणति विशेष है। ( देखें पृ० १/९६) शुभ नाम कर्म के उदय से शुभ योगों का ग्रहण होना चाहिए तथा अशुभ नाम कर्म के उदय से अशुभ योगों का ग्रहण होना चाहिए । तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जयाचार्य ने झीणी चर्चा में कहा है कि अशुभ लेश्याओं से पाप कर्म का बंधन होता है तथा पाप कर्म का बंधन केवल मोहनीय कर्म से होता है। अतः अशुभ द्रव्य योगों का ग्रहण मोहनीय कर्म के उदय के समय होना चाहिए। अन्यत्र ठाणांग के टीकाकार कहते हैं कि योग-वीर्य अन्तराय के क्षय-क्षयोपशम से होता है। जब जीव एक योनि से मरण, च्यवन, उदवर्तन करके अन्य योनि में जाता है तब जाने के पथ में जितने समय लगते हैं उतने समय में वह काययोगी होता है (सिद्धगति को छोड़कर )। आधुनिक विज्ञान में भी जीव के शरीर से किस वर्ण भी आभा निकलती है इसका अनुसंधान हो रहा है तथा उसके तत्कालीन विचारों के साथ वर्णों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जा रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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