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________________ ( ७५ ) अधवा वेयण-कसाय- वेउब्विय-तेजाहाराणं पि एत्थ खुद्दाबंधे अस्थि समुग्धादववएसो, किंतु ण ते पहाणं, मारणंतियखेत्तादो तेसिमहियखेत्ताभावादो । तदो पहाणं मारणं तियपदं जत्थ अस्थि, तत्थ समुग्धादो वि अत्थि । जत्थ तं णत्थि, ण तत्थ समुग्धादोत्ति वुच्चदे । तदो दोहि पयारेहि 'समुग्धादो गत्थि' त्तिण विरुज्भदे । वैक्रियिकमिश्र काययोगी जीव स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अस्तु वै क्रियिकमिश्र काययोगी जीव स्वस्थान से तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग में, अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे और तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि देवराशि के संख्यातवें भाग मात्र वैक्रियिकमिश्र काययोगी द्रव्य पाया जाता है । समुद्घात व उपपाद पद नहीं है, क्योंकि वैक्रियिकमिश्र काययोग के साथ इनका विरोध है । प्रश्न उठता है कि वैक्रियिकमिश्र काययोग की मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों के साथ भले ही विरोध हो, किन्तु वेदना समुद्घात और कषाय समुद्घात के साथ कोई विरोध नहीं है । अतः वैक्रियिकमिश्र काययोग में समुद्घात नहीं है यह वचन घटित नहीं होता है । अभिन्न होने से उसी समाधान — उक्त शंका का यहाँ परिहार कहा जाता है । स्वस्थान क्षेत्र से कथन की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग से वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियिक समुद्घात, विहार वत्समुद्घात, तेजस समुद्घात और आहारक समुद्घात के क्षेत्र में लीन है । अतएव ये यहाँ क्षुद्रकबंध में नहीं ग्रहण किये गये हैं । इसी कारण केवलिसमुद्घात सहित एक मारणान्तिक समुद्घात ही यहाँ समुद्घात निर्देश से ग्रहण किया जाता है । और वह समुद्धात यहाँ है नहीं, इसलिए यह कोई दोष नहीं है । अथवा वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियिक समुद्घात, तेजस समुद्घात और आहारक समुदघात का भी यहाँ 'क्षुद्रकबंध' में समुद्घात संज्ञा प्राप्त है । क्योंकि वे प्रधान नहीं है । क्योंकि मारणान्तिक क्षेत्र की अपेक्षा उनके अधिक क्षेत्र का अभाव है । अतः जहाँ प्रधान मारणान्तिक पद है वहाँ समुद्घात भी है । किन्तु वह नहीं है वहाँ समुद्घात भी नहीं है, ऐसा कहा जाता है | इस प्रकार दोनों प्रकारों से 'समुद्घात' नहीं है । यह वचन विरोध से प्राप्त नहीं होता है । -०९ आहारक काययोगी का समुद्घात क्षेत्र आहारकायजोगी वेउब्विय कायजोगिभंगो । - षट० खं २ । ६ । सू ६५ | पु७ । पृष्ठ० ३४५ टीका - एसो दव्वट्टियणिद्द सो । पज्जवट्ठियणयं पडुच्च भण्णमाणे अत्थि तदो विसेसो । तं जहा - सत्याण - विहारवदिसत्थाणपरिणदा चदुण्हं लोगाणम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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