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________________ ( ६६ ) सन् शैलेशी केवली भवतीति गाथार्थः ॥ ७६ ॥ इह च भावार्थो नमस्कार नियुक्तौ प्रतिपादित एव, तथापि स्थानाशून्यार्थ स एव लेशतः प्रतिपाद्यते, तत्र योगानामिदं स्वरूपम् - औदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणति विशेषः काययोगः, तथौदारिकवे क्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो वायोगः, तथौदारिकर्वक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोग इति, स चामीषां निरोधं कुर्वन् कालतोऽन्तर्मुहूर्त भाविनि परमपदे भवोपग्राहि कर्मसु च वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा समस्थितिषु सत्स्वेतस्मिन् काले करोति × × × । आवर्जीकरण करने के बाद जल्दी ही केवली समुद्घात का आरम्भ करते हैं । केवली समुद्घात के आठ समयों में – जिस प्रकार आदि के चार समयों में अनुक्रमतः आत्म प्रदेशों का विस्तार करते हैं उसी प्रकार प्रतिलोम क्रम से संहरण करते हैं । प्रथम समय में ऊध्वं और अधो लोकान्त तक स्वदेव प्रमाण विस्तार वाला दंड करते हैं, दूसरे समय में कपाट करते हैं, तीसरे समय में मंथन करते हैं और चतुर्थ समय में लोक व्याप्त करते हैं । इसके बाद प्रतिलोम क्रम से संहरण कर शरीर में स्थित होते हैं । अस्तु केवली समुद्घात ' में मनोयोग तथा वचन योग का व्यापार नहीं होता है क्योंकि उनके व्यापार का कोई अर्थ नहीं है । इस सम्बन्ध में धर्मसार की मूल टीका में हरिभद्रसूरि ने कहा है-" उस समय में प्रयोजन न होने से मन और वचन योग का व्यापार नहीं करता है । काययोग का व्यापार करता हुआ — औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र "काययोग और कार्मण काययोग का व्यापार करता है - अवशेष काययोग का व्यापार नहीं करता है । क्योंकि लब्धि का उपयोग न होने से बाकी काययोग असंभव है । उनमें प्रथम और आठवें समय में औदारिक शरीर का व्यापार है । अतः केवल औदारिक काययोग होता है । तीसरे, चौथे व पांचवें समय में केवल कार्मण काययोग है क्योंकि केवल कार्मण शरीर का व्यापार वाला है, दूसरे, छट्ट े व सातवें समय में कार्मण शरीर का भी व्यापार है अतः औदारिक मिश्र काययोग है । इस सम्बन्ध में भाष्यकार ने कहा है" वस्तुतः केवली समुद्घात गत जीव मन और वचन योग का व्यापार नहीं करता है परन्तु प्रथम और आठवें समय में औदारिक काययोग का व्यापार करता है । औदारिक और कार्मण- दोनों का व्यापार होने से औदारिक मिश्र काययोग - दूसरे, छट्ट े व सातवें समय में होता है । तीसरे, चौथे और पांचवें समय में मात्र कार्मण शरीर भी चेष्टा होने से कार्मण काययोग होता है । केवली समुद्घात गत जीव सवं दुःखों का अंत नहीं करता है परन्तु केवली समुद्घात से निवृत्त होकर - मनयोग, वचनयोग व काययोग का व्यापार करता है क्योंकि उन भगवान के नाम, गोत्र और वेदनीय रूप भवधारणीय कर्म बहुत ( घने ) होते हैं । उस समय उसके अचिन्त्य प्रभाव वाले समुद्घात के वश से आयुष्य के समान करने के बाद अन्तर्मुहूर्त में परमपद -- मोक्ष प्राप्त योग्य होने के —— उस समय जो अनुत्तरौपातिक आदि देव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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