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________________ ( २८३ ) पर्याप्त जीवों में कामण काययोग नहीं होने का कारण यह है कि विग्रह गति का अभाव रहता है। देव और विद्याधर आदि पर्याप्त जीवों में वक्रगति नहीं पाई जाती है। क्योंकि पूर्व शरीर को छोड़कर आगे के शरीर को ग्रहण करने के लिए गमन करते हुए जीव के जो एक, दो या तीन मोड़णाली गति होती है उसी वक्रगति की यहाँ विवक्षा है। कायजोगो पजत्ताण वि अस्थि, अपजत्ताण वि अस्थि । -षट ° खं १।१ । सू ६६ । पृ १ । पृ० ३१० टीका-'अपि' शब्दः समुच्चयार्थे द्रष्टव्यः। कः समुश्चयः १ एकस्य निर्दिष्टप्रदेशद्विप्रभृतरुपनिपातः समुश्चयः। द्विरस्ति-शब्दो-पादानभनर्थकमिति बेन, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्। संक्षेपरुवयोनानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहस्य संक्षेपरुनिसत्त्वानुग्रहा-विनाभावित्वात् । काययोग पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों में होता है । सूत्र में जो 'अपि' शब्द आया है वह समुच्चयार्थक है। समुच्चय का अर्थ होता है-- किसी एक बस्त के निर्दिष्ट स्थान में दो आदि बार प्राप्त होना । सूत्र में 'अस्ति' शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है, किन्तु वह निरर्थक नहीं है, क्योंकि विस्तार से समझने की रुचि रखनेवाले शिष्यों के अनुग्रह के लिए सूत्र में दो बार अस्ति शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि संक्षेप से समझनेवाले शिष्यों को अनुगृहीत नहीं किया गया है, क्योंकि संक्षेप से समझने की रुचि रखनेवाले जीवों का अनुग्रह विस्तार से समझने की रुचि रखनेवाले जीवों के अनुग्रह में अविनाभावी है। अर्थात विस्तार से कथन हो जाने पर संक्षेप से समझनेवाले शिष्यों का कार्य स्वतः चल जाता है । .१३ ओरालियकायजोगो पजत्ताणं ओरालियमिस्सकायजोगो अपजत्ताणं । - घट० खं १।१ । सु ७६ । पु १ । पृ० ३१५ टीका-षड्भिः पञ्चभिश्चतसृभिर्वा पर्याप्तिभिनिष्पन्नाः परिनिष्ठितास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च पर्याप्ताः । किमेकया पर्याप्त्या निष्पन्नः पर्याप्तः उत साकस्येन निष्पन्न इति १ शरीरपर्याप्त्या निष्पन्मः पर्याप्त इति भण्यते । तत्रौदारिककाययोगो निष्पन्नशरीरावष्टम्भवलेनोत्पन्नजीव-प्रदेशपरिस्पन्देन योगः औदारिककाययोगः। अपर्याप्तावस्थायामौदारिकमिश्रकाययोगः। कार्मणौदारिकस्कन्धनिबन्धमजीवप्रदेशपरिस्पन्देन योगः औदारिकमिश्रकाययोग इति यावत् । पर्याप्तावस्थायां कार्मणशरीरस्य सत्त्वात्तत्राप्युभयनिबम्धनात्मप्रदेशपरिस्पन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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