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________________ २७२ ) औधिक वचनयोग तथा विशेषरूप से अनुभयवचनयोग द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं। 1 अनुभय मन के निमित्त से जो वचन उत्पन्न होता है उसको अनुभबचन कहा जाता है यह पहले कहा जा चुका है, किन्तु मनरहित द्वीन्द्रियादि जीवों में अनुभयवचन होने का कारण यह है कि सभी वचन मन से ही उत्पन्न होते है- यह एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि यदि सभी वचनों की उत्पत्ति मन से ही मान ली जाय तो मनरहित केवली के वचनों के अभाव का प्रसंग उपस्थित हो जायगा । ; यह भी नहीं कहा जा सकता है कि विकलेन्द्रिय जीवों में मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है तथा ज्ञान के अभाव में वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी ; क्योंकि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है—यह एकान्त नियम नहीं है। यदि इस एकान्त नियम को मान लिया जाय तो सम्पूर्ण इन्द्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति महीं हो सकेगी, क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति मन से मानी गई है । अथवा, मन से समुत्पन्नत्वरूप धर्म इन्द्रियों में रह भी तो नहीं सकता है, क्योंकि दृष्टि, श्रत और अनुभूति को विषय करनेवाले मानसज्ञान का अन्यत्र सद्भाव मानने में विरोध आता है । यदि मन को चक्षु आदि इन्द्रियों का सहकारी कारण माना जाय सो भी नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रयत्न और आत्मा सहकार की अपेक्षा रखनेवाली इन्द्रियों से इन्द्रियज्ञान की उत्पत्ति होती है । समनस्क जीवों में भी ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोग से ही नहीं होती है, क्योंकि ऐसा मानने पर केवलज्ञान से व्यभिचार का प्रसंग उपस्थित हो जाता है । समनस्क जीवों में क्षायोपशमिक ज्ञान का कारण मनोयोग होना तो अभीष्ट ही है । यदि यह कहा जाय कि 'मनोयोग से वचम उत्पन्न होते हैं' - यह कैसे घटित होगा ? तो यह कोई दोषजनक नहीं है, क्योंकि यहाँ पर मानसज्ञान को उपचारवश 'मन' कहा गया । विकलेन्द्रियों के वचनों में अनुमयत्व होने का कारण यह है कि उनके वचन अनध्यवसाय रूप ज्ञान के कारण होते हैं । यद्यपि विकलेन्द्रिय के वचनों में ध्वनिविषयक अध्यवसाय अर्थात् निश्चय पाया जाता है, फिर भी उनको अनध्यवसाय का कारण कहने का तात्पर्य यह है कि यहाँ पर अनध्यवसाय से वक्ता के अभिप्राय विषयक अध्यवसाय का अभाव विवक्षित है । ४ मृषावचनयोग सत्यमृषावचन योग किसके होता है। मोसवचिजोगो समोसव विजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिी-प्पहूडि जाब खीणकसाय- घीयराय-छदुमत्था त्ति । ० नं १ । १ । सू ५५ पु १ पृ० २८६ - षट् • www.jainelibrary.org Jain Education International - For Private & Personal Use Only
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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