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________________ ( 33 ) चार आस्रवों से चैतन्य मृच्छित होता है, इसलिए वे दुःख के हेतु बनते है । योग अपने आप में सुख और दुःख का हेतु नहीं है । यह मिथ्यात्व आदि चार आश्रवों में प्रवृत्त होता है तब दुःख का हेतु बन जाता है और जब यह तपस्या में प्रवृत्त होता है तब दुःख का हेतु नहीं होता है । कहा है गुणस्थान में कार्मण काययोग को बाद देकर चौदह योग होते हैं । षट् खंडागम की मान्यातानुसार शुक्ललेशी संयता-संयत में नौ योग होते है, शुक्ललेशी प्रमत संयत में ग्यारह योग होते हैं, शुक्ललेशी अप्रमत्त संयत में नौ योग होते है तथा शुक्ललेशी अपूर्व करण गुणस्थान यावत् सयोगी केवली गुणस्थान में योग का विवेचन औधिक यंत्र की तरह जानना चाहिए । छठे गुण ठाणे जिन कह्या दे, चवदे अशुभ योग आस्रव आज्ञा बाहर है, सावय है तथा शुभयोग आस्त्रव आज्ञा में है, निरवद्य है, आठ आत्मा में योग आत्मा भी है। अव्यवरराशि में तीन योग - औदारिक, औदारि मिश्र काययोग व कार्मण योग होता है । व्यवहार राशि में पन्द्रह योग होते है । योग चेतना की स्थूलतम हलचल है और अध्यवसाय सूक्ष्म आंतरिक । अध्यवसाय ( परिणाम, विचार ) चेतना की भावधारा का नाम है। तेजस् शरीर के साथ काम करने वाली भावधारा को लेश्या कहते हैं । भाव लेश्या योग के पूर्व की भावधारा है । जोग सुजोय जी ॥१३॥ - नियंठा दिग्दर्शन गा १३ पृ. ३१३ अमृत कलश भाग १ शुभयोग की प्रवृत्ति मात्र पुण्य बंध का हेतु है । जिस शुभयोग रूप क्रिया से निर्जरा होती है, उसी क्रिया से पुण्य का बंध होता है। प्रवृत्ति मात्र योग जन्य है । योग की उत्पत्ति द्वन्द्वात्मक है । नामकर्म के उदय और अन्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम से योग की उत्पत्ति होती है। शुभयोग में मोह का अनुदय ( उपशम, क्षय, क्षयोपशम ) और जुड़ जाता है । जब योग स्वयं द्वान्द्वात्मक है तो उसकी निष्पत्ति भी द्वान्द्वात्मक है । उदयभाव से पुण्य का बंध तथा क्षायिक, क्षयोपशम, उपशम से निर्जरा होती है । प्रवृत्ति दो प्रकार की है शुभ और अशुभ । अशुभयोग से पाप का बंध होता है । शुभयोग से पुण्य का बंध तथा निर्जरा होना माना है । भी है शुभ लेश्या, शुभयोग से आकर्षित कर्म-वर्गणा शुभरूप में परिणत हो जाती है । अशुभ लेश्या, अशुभयोग से आकर्षित कर्म-वर्गणा अशुभ रूप में परिणत हो जाती है । योग आश्रव के शुभ-अशुभ दो भेद है । प्रकारान्तर से योग आखव के पन्द्रह भेद 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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