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________________ ( 32 ) कृतयुग्म - कृतयुग्म संख्या के अनुभव के चरम और अचरम समय अर्थात् एकेन्द्रोत्पत्ति के समयवर्ती एकेन्द्रिय जीव चरम अचरम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय है । ११ योगी ( मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी ) जीन एजनादि क्रिया करता है, अयोगी जीव के एजनादि क्रिया नहीं होती । सयोगी जीव एजन ( कंपन ), विशेष कंपन, चलन ( एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना ) स्पन्दन ( थोड़ा चलना ) घट्टन ( सब दिशाओं में चलना ) क्षमित होता हुआ उदीरण आदि क्रियाएँ करता है और उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्जन, प्रसारण आदि पर्यायों को प्राप्त होता है। वाला जीव सकल कर्म क्षय रूप अंतक्रिया नहीं कर सकता है । इसका कारण यह है कि उपर्युक्त क्रियाएँ करने वाला जीव आरम्भ, सरम्भ, समारम्भ करता है, इनमें प्रवृत्त होता है । पूर्वोक्त क्रियाओं को करने शैलेशी व्यवस्था में योग का निरोध हो जाता है । इसीलिए एजनादि क्रिया नहीं होती है । एजनादि क्रिया न होने से वह आरम्भादि में प्रवृत्त नहीं होता और इसीलिए वह प्राणियों के दुःखादि का कारण नहीं बनता है । इसीलिए योग निरोध रूप शुक्ल ध्यान द्वारा अक्रिय आत्मा की सकल क्षयरूप अंतक्रिया होती है । किसी अपेक्षा से चौदहवें गुणस्थान में एजन क्रिया नहीं है किन्तु सिद्ध के प्रथम समय में योग का अभाव होने पर भी एजन क्रिया होती है। सिर्फ एक समय की ऋजुगति होने के समय एजन क्रिया मानी जाती है । I कर्म-परमाणुओं को आकर्षित करने की क्रिया को भी आस्रव कहा जाता है । कर्म पुद्गल परमाणुओं का आकर्षण काययोग ( शरीर प्रवृत्ति ) से होता है । वाहरी पुद्गलों को आकर्षित करने वाले घटक के रूप में काययोग आस्रव बनता है। सभी कर्म परमाणु काययोग के द्वारा ही आकर्षित होते हैं । जैसे तालाब में नाले से जल आता है वैसे ही काययोग के द्वारा कर्म के परमाणु भीतर आकर जीव प्रदेशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं। जैसे गीले कपड़े पर वायु द्वारा। लाये गये रजकण चिपकते हैं, वैसे ही राग द्वेष गीले बने हुए जीव पर काययोग द्वारा लाए गये कर्म परमाणु चिपकते हैं । जैसे तपा हुआ लोहfपंड जलकणों को आत्मसात कर लेता है वैसे ही कषाय से उत्पन्न जीव कर्म परमाणुओं को आत्मसात् कर लेता है । आसव के पाँच प्रकार है - १. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४ कषाय और ५ योग । कषाय के समाप्त होने पर केवल योग से पुण्य कर्म का बंध होता है । मनुष्य के पास प्रवृत्ति के तीन साधन है मन, वचन और काय । ये तीनों योग कहलाते है । योग का अर्थ है-प्रवृत्ति, चंचलता या सक्रियता | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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