SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १६२ ) 0 अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा जाना जाता है कि प्रकृति और प्रदेश के बन्ध का प्रधान कारण योग है। .०३२ भाव योग और आस्रव (क) मिथ्यात्वमविरतिः प्रमादः कषायो योगश्च-जैनसिदी० प्र ४ । सू १८ आस्रव के पाँच भेद हैं, उसका पाँचवाँ आस्रव योग आस्रव है-- १-मिथ्यात्व आत्रव २-अविरति आस्रव -प्रमाद आत्रव ४-कषाय आस्रव ५-योग आस्रव (ख) शुभयोग एवं शुभकर्मास्रवः -जैनसिदी० प्र ४ । सू २८ शुभयोग ही शुभकर्म का आस्रव है। और योग आस्रव का एक भेद शुभ व एक भेद अशुभ योग आस्रव है। .०३३ भाव योग और निर्जरा यत्र शुभयोगस्तत्र नियमेन निर्जरा -जैन सिदी० प्र ४ । सू २६ जहाँ शुभ योग होता है ; वहाँ निर्जरा अवश्य होती है । .०३३ भाव योग की परिभाषा कायवाङ्मनोव्यापारो योगः -जैनसिदी० प्र ४ । सू २६ शरीर, वचन एवं मन के व्यापार को योग कहते हैं। .०३४ भाव योग के भेद (योगः) शुभोऽशुभश्च -जैनसिदी० प्र४ । सू २७ योग दो प्रकार का होता है-शुभ व अशुभ । .०३५. योग और संवर पंच संवरदारा पण्णत्ता, तंजहा-सम्मत्त, विरई, अप्पमाया, अकसाया, अजोगा। -सम० सम ५ । सू ५ - ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ११० पाँच संवर में एक अयोग संवर है जो संपूर्ण योग के निरोध होने पर-चौदहवें गुणस्थान में होता है । संवर पाँच है-यथा-सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोगसंवर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy