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________________ ( 23 ) निर्जरण होता है उसे भगवान ने निर्जरा कहा है। पुण्य की कर्ता सिर्फ योग आत्मा है । योग आत्मा सप्रदेशी है। सावध योग को अपेक्षा योग आत्मा को निंदनीय कहा है। योग आत्मावाले जीवों में (भिन्न-भिन्न जीवों का अपेक्षा) बारह उपयोग होते हैं । जहाँ योग आत्मा है वहाँ कषाय, ज्ञान व चारित्र आत्मा की यजना है तथा शेष पाँच आत्मा की नियमा है । उदय के तेतीस बोलों में एक बोल सयोगी है । शुभयोग को औदयिक भाव भी माना है व्यक्ति के उससे पुण्य का आश्रव होता है । जीव परिणाम के दस भेद है उनमें योग परिणाम पाँचवाँ है तथा लेश्या परिणाम चौथा है अतः दोनों परिणाम भिन्न-भिन्न है। लेश्या परिणाम में छह लेश्याए व योग परिणाम में तीन योग समाविष्ट हैं । ____ भगवती सूत्र में प्रमत्त संयत की अपेक्षा शुभयोग को अनारम्भिक कहा है । सयोगीगित्व का नव पदार्थों में जीव-आश्रव-निर्जरा में समवतार होता है। योग का सम्बन्ध अंतराय कर्म के क्षय क्षयोपशम तथा शरीर नाम कर्म के उदय से है। इस दृष्टि से योग में उपशम भाव को बाद देकर चार भाव का उल्लेख है। क्योंकि उपशम अंतराय कम का नहीं होता है, केवल मोहनीय कर्म का ही होता है। निर्जरा मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम निष्पन्न भाव के बिना नहीं होती है, इस दृष्टि से योग में पाँच भाव भी मिलते हैं। उसे सहचर बताया गया है । योग स्वयं सावद्य-निरवद्य नहीं होता है। वह मोहनीय कर्म के औदयिक भाव के साहचर्य से सावद्य बनता है तथा उसके उपशम, क्षय और क्षयोपशम निष्पन्न भाव के साहचर्य से निरवद्य बनता है। जहाँ शुभयोग से पुण्य बंध होता है वहाँ साथ साथ निजरा भी होती है। इस दृष्टि को निर्जरा को योग का सहचर बताया गया है। यद्यपि भगवती सूत्र में द्रव्य काययोग को अष्टस्पर्शी कहा है। चूँकि द्रव्य काययोग के अंतर्गत कार्मण काययोग भी है, जो चतुःस्पी है, कार्मण शरीर भी चतुःस्पर्शी है । अतः काययोग चतुःस्पर्शी व अष्टस्पर्शी दोनों होने चाहिए, किन्तु यहाँ कामण काययोग की विवक्षा की गई है। शीत, उष्ण, स्निग्ध, तथा रुक्षके चार मौलिक स्पर्श है। द्रव्ययोग चतुःस्पर्शी भी है, अष्टस्पर्शी भी है । लेकिन लेश्या को अष्टस्पर्शी कहा है । वयालीस दोष व बावन अनाचार को जयाचार्य ने अशुभयोग आत्मा कहा है। ईपिथिक में केवल पुण्य का बंध होता है । शुभयोग के बिना पुण्य का बंध नहीं होता है । चूँकि उदयनिष्पन्न भाव जीव है, उसके तेंतीस बोल है। उसमें एक बोल--- सयोगित्व है, तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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