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________________ ( 22 ) मातवें गुणस्थान में बीस संवरके भेदों में पन्द्रह भेद प्राप्त होते हैं । वहाँ योग अशुभ नहीं होते है । केवल शुभयोग होते है। चूंकि इस गुणस्थान में अकषाय, अयोग, मन, वचन और काय ये पाँच संवर प्राप्त नहीं होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण रूप से अयोग संवर होता है, वहाँ संवर के बीसों भेद मिलते हैं । आठ आत्माओं में एक योग आत्मा भी है। योग आत्मा में पहले से तेरहवें गुणस्थान तक मिलते हैं । ग्यारवें बारहवें व तेरहवें गुणस्थान में एक ईपिथिक क्रिया होती है वह सिर्फ शुभयोग के द्वारा होती है। चौदहवाँ गुणस्थान अयोग आत्मा है चूंकि आत्मा अनेक है । झीणीचर्चा में कहा है चवदमो गुणठाण रे, अजोग आत्मा । ढाल ७/१२ श्रीमज्जयाचार्य शुभयोग को मार्ग तथा अशुभ योग को उन्मार्ग बताया है । तथा उन्होंने अप्रमाद, अकषाय एवं अयोग संवर को धर्म नहीं माना 1 धर्म अमूल्य है । वह तीन आत्मा है-शुभयोग रूपयोग आत्मा, सावद्ययोग त्याग रूप चारित्र आत्मा और सम्यक्त्व रूप दर्शन आत्मा। अधर्म अशुभ योग रूप होने के कारण योग आत्मा भी है। शुभयोग को निर्जरा धर्म की अपेक्षा मार्ग कहा है। शुभयोग से होने वाली निर्जरा धर्म है तथा अशुभयोग अधर्म की कोटि में है फिर भी शुभयोग मार्ग की कोटि में विवक्षित है अतः अशुभयोग को मार्ग की कोटि में भी रखा गया है ।। श्री मज्जयाचार्य ने झीणीचर्चा में शुभयोग में औपशमिक भाब छोड़कर चारभाव कहा है तथा आत्मायोग कहा है। अशुभयोग में औदयिक और पारिणामिक दो भाव कहा है तथा आत्मायोग कहा है । भाव जीव में योग आदि सात आत्मा कही है। बोलना, चलना, स्नान करना, शृंगार करना, खेती करना, झूठ बोलना तथा चोरी करना आदि एक योग आत्मासे होता है। योग आत्मा अनेक है । योग आत्मा सावध भी है, निरवद्य भी है। कर्मों का क्षय योग आत्मा से भी होता है। योग के बिना अयोगी के भी ध्यान से कर्म क्षय होते हैं। करणी की अपेक्षा योग,'दर्शन तथा चारित्र आत्मा-आज्ञा में है । सर्व उत्तर गुण एक योग आत्मा है तथा सर्व मूल गुण एक चारित्र आत्मा है। शुभयोग में चार अथवा पाँच भावकी व्यवस्था मिलती है तथा अशुभयोग में औदयिक व पारिणामिक दो भावकी व्यवस्था मिलती है। वीर्य के दो भेद है-लब्धि वीर्य और करण वोर्य । करण वीर्य योग बन जाता है । योग सावध व निरवद्य बताया गया है। लब्धि वीर्य को निरवद्य कहा है । करणी की अपेक्षा योग, दर्शन तथा चारित्र आत्मा धर्म सम्मत है । योग आत्मा को सर्व उत्तर गुण व देश उत्तर गुण कहा है। शभयोमों से कम का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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