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________________ ( १३०) (क) व्यवहार नय की अपेक्षा से द्रव्ययोग तो शुभाशुभ-मिश्र रूप भी हो सकता है, निश्चय नय की अपेआ से तो वह (द्रव्ययोग) भी केवल शुभ या केवल अशुभ रूप ही है । उनके मत में भी यथोक्त चिन्ता तथा देशनादि के प्रवर्तक द्रव्ययोगों का शुभाशुभ मिश्र रूप नहीं माना गया है। मन, वचन और काय के द्रव्ययोग के साधनभूत अध्यवसाय रूप भावकरण या भावयोग में शुभाशुभ रूप मिश्र भाव नहीं है, क्योंकि वहाँ पर आगम में निश्चय नय से ही विवक्षा की गई है। आगम में कहीं भी शुभ और अशुभ इन दो अध्यवसायों के अतिरिक्त शुभाशुभ रूप तीसरा मिश्र-अध्यवसाथ नहीं देखा जाता है जिसके द्वारा अध्यवसाय रूप भावयोग को शुभाशुभ माना जाय । (ख) मनोयोग और वचनयोग के तृतीय-चतुर्थ भेदों को, अर्थात् सत्यासत्य और असत्यामृषा रूप को स्थूल व्यवहार नय की अपेक्षा से समझना चाहिए, निश्चय नय की अपेक्षा से तो सारे मनोज्ञान और वचन, जिनकी विवक्षा निर्दोषतापूर्वक की जाती है वे सत्य है तथा जिनकी विवक्षा अज्ञानादि से दूषित होती है वे असत्य हैं। उभयरूप अर्थात सत्यासत्य रूप और अनुभय रूप अर्थात असत्यामृषा रूप तो है ही नहीं, क्योंकि सत्य रूप का सत्य में और मृषा-असत्य रूप का असत्य में अन्तर्भाव हो जाता है । .०९.१ ववनयोग और मनोयोग पर नय की अपेक्षा विवेचन __ अत्र तृतीयचतुर्थों मनोयोगौ वाग्योगौ च परिस्थूरव्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यौ । निश्चयनयमतेन तु मनोज्ञानं वचनं वा सर्वमदुष्टविवक्षापूर्वकं सत्यम्, अज्ञानादिदूषिताशयपूर्वकं त्वसत्यम्, उभयानुभयरूपं तु नास्त्येव सत्यासत्यराशिद्वयेऽन्तर्भावादिति भावनीयम् । -कर्म भा ४गा २४ टीका।पृ० १५१ __ तीसरा और चौथा मनोयोग तथा वचनयोग स्थूल व्यवहार नय की अपेक्षा से जानना चाहिए । निश्चयनय की अपेक्षा से मनोज्ञान या वचन, जिसमें विवक्षा दोषरहित हो तो सब सत्य हैं तथा यदि विवक्षा दोषपूर्वक है तो असत्य है । उभयरूप अर्थात् सत्यासत्य रूप तथा अनुभय रूप अर्थात् असत्यामृषा रूप तो है ही नहीं, क्योंकि सत्य का सत्य में और असत्य का असत्य में अन्तर्भाव हो जाता है । .०९.२ योग का निक्षेप की अपेक्षा विवेचन .१ एत्थजोगो चउविहो-णामजोगो ठवणजोगो दव्वजोगो भाषजोगो चेदि। णाम-ठवणजोगा सुगमा त्ति ण तेसिमत्थो बुञ्चदे। दव्वजोगो दुविहो आगमदव्वजोगो णोआगमदव्वजोगो चेदि । तत्थ आगमदव्वजोगो णाम जोगपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो। णोआगमव्वजोगो तिविहो जाणुगसरीर-भवियतव्यतिरित्तदव्वजोगो चेदि । जाणुगसरीरभवियदम्वजोगा सुगमा । तव्वदिरित्तदव्वजोगो अणेयविहो। तंजहा, सूर-णक्खत्तजोगो चंद-णक्खत्तजोगो गह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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