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________________ ( १०३ ) क्षयनिमित्त भी योग स्वीकार किया जाय तो अयोगिकेवली में भी योग होने का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा । यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्रिया-परिणामी आत्मा का जो त्रिविध वर्गणाओं के आलम्बन सापेक्ष प्रदेश परिस्पन्दन होता है उसको सयोगिकेवली का योग माना जाता है; अयोगिकेवली में इन वर्गणाओं के आलम्बन का अभाव रहने के कारण योग नहीं होता है । अनेकान्त के द्वारा भी योग की त्रिविधता सिद्ध होती है। जैसे देवदत्त नामक कोई व्यक्ति जाति, कुल, रूप, संज्ञा रूप लक्षण आदि के द्वारा एक होते हुए भी बाह्य उपकरणों के सम्बन्ध से भेदक ( भेदन करनेवाला ), लावक ( छेदन करनेवाला ), पावक ( पवित्रकरनेवाला) आदि पर्यायों को प्राप्त करते हुए कदाचित् एकत्व तथा कदाचित अनेकत्व को प्राप्त कर अनेकान्त बन जाता है उसी प्रकार प्रतिनियत क्षायोपशमिक पर्यायों के द्वारा कदाचित योग की भी त्रिविधता सिद्ध होती है। अनादि पारिणामिक आत्मद्रव्य रूप पदार्थ के आधार पर कदाचित् योग एक ही प्रकार का रह सकता है । इस प्रकार अनेकान्त के आधार पर कोई उपालम्भ नहीं रहता है । .०९ नेमिचन्द्र - गोजी० गा० २१५ । पृ० ८७ पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय से युक्त जीब की कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति का नाम 'योग' है । नेमिचन्द्र पुग्गल विवाहदेहोदयेण मणचयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥ पुग्नलविवाहदेहोदयेण मणचयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोग ॥ पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय से जो कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं । ·१० पूज्यपादान्वर्य ११ अकलंकदेव (क) भाबलेश्या कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते । - सर्व ० • अ २ । सू ६ इसको अकलंक देव ने उद्धत किया । - राज० अ २। सू ६ । पृ१०६ । ला २४ Jain Education International (क) कषायोदय र जिता योगप्रवृतिर्लेश्या । - गोजी ० ० गा२१५ युक्त जीव की - राज० अ २ | सू ६ । पृ १०६ ! ला २१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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