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________________ ०११२ जोगपवहे ( योगप्रवह ) योगों की असत्प्रवृत्ति । मूल-से णं भंते ! पमाए किपबहे ? गोयमा ! जोगप्पच हे । टीका- 'जोगव्यव है' त्ति योगो मनः प्रभृति व्यापारः, तत्प्रचहत्वं य प्रमादस्य मद्याद्यासेवनस्य । योगप्रवह । ( ३७ ) मनः प्रभृति के व्यापार की प्रमादवश मद्यादि के आसेवन रूप असत्प्रवृत्ति होना .०११३ जोगपरिणामे (योगपरिणाम ) ०११४ जोगवं ( योगवान् ) उत्कृष्ट योगों से युक्त । मन, वचन, काय के व्यापार को योगपरिणाम कहा जाना । दसविधे जीवपरिणामे पण्णत्ते, तंजहा - गतिपरिणामे x x x लेसापरिणा जोगपरिणामे × × × । टीका - स व मनोवाक्कायभेदस्त्रिधेति x x x लेश्या परिणाम x x x अयं व योगपरिणामे सति भवति, यस्मान्निरुद्धयोगस्य लेश्यापरिणामोऽपैति, यतः समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमलेश्यस्य भवति । पयणुको हमाणे य मायालोभे य पसन्नचित्ते दन्तप्पा जोगव - ०११५ जोगवं उपहाणवं ( योगवं उपधानं ) - भग० श ११३ ३ १२८ - ०११६ जोगवसादो ( योगवशात् ) Jain Education International यह प्रकरण पद्मलेश्या के परिणमन का है । पद्मलेश्या में परिणमन करनेवाले में क्रोध, मान, माया तथा लोभ की मात्रा प्रतनुक्षीण रहती है । उसको प्रसन्नचित्त, दान्तात्मा और योगवान कहा गया है । योग की वशवर्तिता अर्थात् अल्पाधिकता | - उत्त० वसे गुरुकुले निच्छं, जोगवं उहावं । पियंकरे पियबाई, से सिक्खंलधुमरिहई || जो सदा गुरुकाल में वास करता है, गुरु के अनुशासन में रहता है, जो समाधि में रहता है, श्रत का अध्ययन करते समय तप करता है, जो प्रिय करता है और प्रिय बोलता है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है । ठाण० स्था ६१८ पयणुए । उपहावं ॥ - उत्त० अ ३४ । गा० २६ For Private & Personal Use Only - गोक० गा ४ www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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