SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गरहणयाए ण अपुरकारं जणयइ | अपुरस्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहितो जोगेहितो नियत्तेइ x xx। आत्मनम्रता में व्याघात उत्पन्न करनेवाला-अप्रशस्त योग । आत्मनम्रता की प्राप्ति में आत्मगहीं-आत्मनिन्दा को कारण माना गया है । आत्मनम्रता प्राप्त हो जाने से अप्रशस्त योगों से सहज निवृत्ति हो जाती है । २७ अप्पिदजोगजीपरासिपमाणं ( विवक्षितयोगजीवराशिप्रमाण) -षट • खं १, ८।सू १११।टीकापु ५/पृ० २६१ सयोगी जीवों की विवक्षित-कल्पित जीवराशि रूप । एत्थ वि जहा ओघम्हि गुणगारो साहिदो तहा साहेदव्यो। णवरि अप्पिदजोगजीवरासिपमाणं णादृण अप्पाबहुअं कायत्वं । योग की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का साधन करने में आवश्यक सयोगी जीवों की विवक्षित अर्थात् अपेक्षित जीवराशि-अप्पिदजोगजीवराशिप्रमाण । .२८ अप्पिदजोगद्धाए ( विवक्षितयोगाद्वा) ----षट • खं० १,८। सू ११६ । टीका । पु । ५ । पृ. २६२ विवक्षित योग का कालमान । जोगद्धाणं समासं कादूण तेण सामण्णरासिमोघट्टिय अप्पिदजोगद्धाए गुणिदे इच्छिद इच्छिदरासीओहोति । अपेक्षित योग का आगमोक्त कालमान-विविक्षत योगाद्धा। २९ अपुण्णजोगगदं ( अपूर्ण योगगत ) मन, वचन और काय की चेष्टाएँ जिनकी अपूर्ण हैं। मिच्छे सासण अयदे पमत्तविरदे अपुण्णजोगगदं । पुण्णगदं च य सेसे पुण्णगदे मेलिदं होदि ।। मिथ्यात्व, सास्वादन, असंयत और प्रमत्तसंयत-इन चार गुणस्थानों में स्थानसंख्या और प्रकृतिसंख्या जानने में पर्याय योग के साथ अपर्याप्त योग अर्थात योग की अपूर्णता की भी गणना होती है। '३० अनियणियडिसादिजोगबहुलं ( अलीकनिकृतिसादिओगबहुल) --- पहा. द्वार २ । अ२। सू १६ मायापूर्वक मिथ्याभाषण रूप सारम्भ योग की प्रचुरता । एयं तं वितियंपि अलियवयणं xxxअलिय-नियडि-सादि-जोगबहुलं xxx पुणब्भवकर चिरपरिचियमणु गयं दुरंतं । -गोक. गा ४६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016028
Book TitleYoga kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1993
Total Pages428
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy