SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 524
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थापनावेदना) ११६१, जैन-लक्षणावली [स्थापनासामायिक वराटक इनमें 'यह प्रावश्यक है। इस प्रकार से सद- वचन को स्थापनासत्य कहते हैं। २ पदार्थ के न भावस्थापना अथवा प्रसदभावस्थापना के द्वारा एक रहते हुए भी पांसों आदि में कार्य के वश जो हाथी अथवा अनेक की स्थापना की जाती है उसे स्थापना- प्रादि को कल्पना करके वैसा कहा जाता है, यह वश्यक कहा जाता है। यहाँ स्थाप्यमान प्रावश्यक से स्थापनासत्य कहलाता है। प्रभेदोपचारसे प्रावश्यकवान् को ग्रहण किया गया है। स्थापनासंक्रम-सो एसो त्ति अण्णस्स सरूवं बुद्धीए स्थापनावेदना-सा वेयणा एस त्ति अभेएण अज्झ- णित्तो ठवणसंकमो। (धव. पु. १६. पृ. ३३६)। वसियत्थो ठवण वेदणा । (धव. पु. १०, प. ७)। वह यह है' इस प्रकार अन्य के स्वरूप को बद्धि में 'वह वेदना यह है' इस प्रकार प्रभेद के साथ जो स्थापित करना, यह स्थापनासंक्रम है। पदार्थ का निश्चय किया जाता है उसे स्थापना- स्थापनासंख्या-देखो स्थापनावश्यक । जणं वेदना कहते हैं। कट्टकम्मे वा पोत्थकम्मे वा जाव से तं ठवणसखा । स्थापनाश्रुत-ज णं कट्टकम्मे वा जाव उवणा (अनुयो. सू. १४६, पृ. २३०) । ठविज्जइ से तं ठवणासुग्रं । (अनुयो. सू. ३१, पृ. काष्ठकर्म प्रादि में जो सद्भाव अथवा असदभाव स्थापना के द्वारा यह संख्या है' इस प्रकार से अध्याकाष्ठकर्म प्रादि में श्रत के पठन प्रादि में व्याप्त रोप किया जाता है उसे स्थापनासंख्या कहते हैं। एक-अनेक साधुओं आदि की जो श्रुत के रूप से स्थापनासंख्यात --जं तं ठवणासखेज्जयं तं कट्टस्थापना की जाती है उसे स्थापनाश्रुत कहा जाता है। कम्मादिसु सब्भावासब्भावटूवणाए ठविदं असखेस्थापनासत्य-१.XXX ठवणा ठविदं जह जमिदि। (घव. पु. ३, पृ. १२३)। देवदादि xxx। (मला. ५.-११३)। २. अस- काष्ठकर्म प्रादि में सद्भाव व असद्भाव स्वरूप से त्यप्यर्थे यत्कार्यार्थ स्थापितं धुताक्षनिक्षेपादिषु (धव. यह असंख्यात है' इस प्रकार से जो स्थापना की 'धूताक्षादिषु', चा. व कार्ति. 'द्यूताक्षसारिका') तत् जाती है उसे स्थापनासंख्यात कहा जाता है। स्थापनासत्यम् । (त. वा. १, २०, १२; धव. पु. स्थापनासामायिक- १. सर्वसावधनिवृत्तिपरि१, पृ. ११७-१८; चा. सा. पृ. २६; कार्तिके. टी. णामवता प्रात्मना एकीभूतं शरीरं यत्तदाकारसा३९८) । ३. अर्हन्निन्द्रा स्कन्द इत्येवमादयः सद्भावा- दृश्यात्तदेवेदमिति स्थाप्यते यच्चित्र-पुस्तादिक सद्धावस्थापनाविषया: स्थापनासत्यम्। (भ. प्रा. तत्स्थापनासामायिकम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६)। विजयो. ११६३) । ४. प्राकारेणाक्ष-पुस्तादौ सता २. काश्चन स्थापना: सुस्थिताः सुप्रमाणाः सर्वावयववा यदि वाऽसता । स्थापितं व्यवहारार्थं स्थापना- सम्पूर्णा: सद्भावरूपा मन पाल्हादकारिण्यः, काश्चन सत्यमुच्यते ॥ (ह. पु. १०-१००)। ५. धर्मोऽन्य- पुनः स्थापना दुःस्थिता: प्रमाणरहिताः सर्वावयवरवस्तुनः स्थाप्यतेऽन्यस्मिन्ननुरूपिणि । अन्य स्मिन् वा सम्पूर्णाः सद्भावरहितास्तासाम् उपरि राग-द्वेषयोरयया मत्या स्थापना सा तया वचः॥ सत्यं स्यात् भावः स्थापनासामायिकं नाम । XXX अथवा स्थापनासत्यं प्रतिबिम्बाक्षतादिषु । चन्द्रप्रभजिनेन्द्रो- xxx सामायिकावश्यकेन परिणतस्याकृतिनत्यऽयमित्यादि वचनं यथा ॥ (प्राचा. सा. ५, २७ व नाकृतिमति च वस्तुनि गुणारोपणं स्थापनासामा२८)। ६.xxx स्थापने देवोक्षादिषु xxयिक नाम । (मूला. व. ७-१७) । ३. स्थापनाx। (प्रन. घ. ४-४७)। ७. स्थापनासत्यं यथा सामायिकं मानोन्मानादिगुणमनोहरास्वितरासू च पाषाणप्रतिमादिष्वियं चक्रेश्वरी, अयमहन् इति स्थापनासु राग-द्वेषनिषेधः। xxx सामायिकातदिदमिति बुद्धिपरिग्रहणम् । (भ. प्रा. मला. वश्यकपरिणतस्य तदाकारेऽतदाकारे वा वस्तूनि ११९३) । ८. अन्यत्रान्यवस्तुनः समारोप: स्थापना, गुणारोपणं स्थापनासामायिकम् । (प्रन. प. स्वो. तदाश्रितं मुख्यवस्तुनो नाम स्थापनासत्यम् । (गो. टी. ८-१६)। ४. मनोज्ञामनोज्ञासु स्त्री-पुरुषाद्याजी. म प्र. व जी. प्र. २२३)। कारस्थापनासु काष्ठ-लेप्य-चित्रादिप्रतिमासू राग१ स्थापना में जो देवता प्रादि की कल्पना को द्वषनिवृत्तिः इदं सामायिकमिति स्थाप्यमानं यत्किजाती है-जैसे मति में ऋषभादि की, तदनुरूप चिद्वस्तु वा स्थापनासामायिकम् । (गो. जी. म. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy