SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 523
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थापनाप्रत्याख्यान ) स्थापनाप्रतिक्रमणम् । XXX प्रतिक्रमणपरिण तस्य प्रतिबिम्बस्थापना स्थापनाप्रतिक्रमणम् । (मूला. वृ. ७-११५ ) । १ विशिष्ट जीवद्रव्य से प्रनुगत शरीर के प्राकार की प्रपेक्षा से जो चित्र प्रादि के रूप में प्रशुभ परिणामों की स्थापना की जाती है उसे स्थापनाप्रतिक्रमण कहते हैं । २ सराग स्थापनाथों से परिणामों के हटाने का नाम स्थापनाप्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण में परिणत जीव के प्रतिबिम्ब की स्था पता को स्थापनाप्रतिक्रमण कहा जाता है । ११६०, जैन-लक्षणावली स्थापनाप्रत्याख्यान - प्राप्ताभासानां प्रतिमा न पूजयिष्यामीति, योगत्रयेण त्रस स्थावरस्थापनापीडां न करिष्यामीति प्रणिधानं मनसा स्थापनाप्रत्याख्यानम् । अथवा अर्हदादीनां स्थापनां न विनाशयिष्यामि नंवानादरं तत्र करिष्यामि इति वा । (भ. श्री. विजयो. ११६, पृ. २७६ ) । मैं प्राप्ताभासों की प्रतिमानों की पूजा न करूंगा तथा मन-वचन-काय से त्रस व स्थावर जीवों की स्थापना को पीड़ित न करूंगा, इस प्रकार मन से चिन्तन करने का नाम स्थापनाप्रत्याख्यान है । प्रथवा श्रवादिकों की स्थापना को न नष्ट करूंगा और न अनादर करूंगा, इस प्रकार के विचार का नाम स्थापनाप्रत्याख्यान है । स्थापनाबन्ध - प्रणबंधम्मि अण्णबंधस्स सो एसो ति बुद्धीए टूवणा दुवणबंधो णाम । ( धव. पु. १४, १. ४) । 'वह यह है' इस प्रकार की बुद्धि से जो अन्य बन्ध में अन्य बन्ध की स्थापना की जाती है उसे स्थापनाबन्ध कहा जाता है । स्थापनाबन्धक - कट्ट - पोत्त-लेप्पकम्मादिसु सन्भावासवभावभेएण जे ठविदा बंघया त्ति ते ठवणबंधया णाम । ( धव. पु. ७, पृ. ३ ) । काष्ठकर्म, पोत्तकर्म और लेप्यकर्म प्रादि में सद्भाव मौर प्रसद्भाव के भेद से जिन बन्धकों की स्थापना की जाती है वे स्थापनाबन्धक कहलाते हैं । स्थापनामंगल - १. ठावणमंगलमेदं प्रकट्टिमाकट्टिमाणि जिबिबा । ( ति प १ -२० ) । २. जा मंगल तिठवणा विहिता सब्भावतो व असतो वा । ( बृहत्क. १) । ३. ठवणमंगलं णाम प्राहिदणामस्स Jain Education International [स्थापनावश्यक अण्णस्स सोयमिदि ठवणं ठवणा णाम । ( धव. पु. १, पू. १६) । १ प्रकृत्रिम और कृत्रिम जिनप्रतिमानों को स्थापनामंगल माना जाता है। २ सद्भाव अथवा प्रसद्भाव रूप से जो 'वह यह मंगल है' इस प्रकार की स्थापना की जाती है उसे स्थापनामंगल कहते हैं । स्थापनालक्षण स्थापनालक्षणं लकारादिवर्णानामाकारविशेषः, अथवा लक्षणानां स्वस्तिक- शङ्खचक्र-ध्वजादीनां यो मंगलपट्टादावक्षतादिभिर्व्यासस्तत् स्थापनालक्षणम् । (श्राव. नि. मलय. वृ. ७५१, पृ. ३६७) । 'लक्षण' शब्दगत लकार श्रादि वर्णों का प्रथवा स्वस्तिक, शंख, चक्र और ध्वजा श्रादि लक्षणों (चिह्नों) का मंगलपट्ट प्रादि में जो प्रक्षतों श्रादि के द्वारा निक्षेप किया जाता है उसे स्थापनालक्षण कहते हैं । स्थापनालेश्या -- सब्भावासम्भावटुवणाए ठविददवं ठवणलेस्सा | (घव. पु. १६, पृ. ४८४)। सद्भाव या प्रसद्भाव स्थापना द्वारा लेश्या के रूप में स्थापित द्रव्य को स्थापनालेश्या कहा जाता है । स्थापनालोक - ठविदं ठाविदं चावि जं किंचि श्रत्थि लोगम्हि | ठवणालोगं वियाणाहि श्रणंत जिणदेसिदं । (मूला. ७-४६ ) । लोक में जो कुछ भी स्थित है और स्थापित है उसे स्थापनालोक जानना चाहिए । स्थापनाल्पबहुत्व - एदम्हादो एदस्स बहुत्तमप्पत्तं वा एदमिदि एयत्तज्भारोवेण ठविदं ठवणप्पा बहुगं । (घव. पु. ५, पृ. २४१ ) । इसकी अपेक्षा यह अधिक है अथवा यह अल्प है, इस प्रकार से जो एकता के अध्यारोपपूर्वक स्थापित किया जाता है उसे स्थापनाश्रल्पबहुत्व कहते हैं । स्थापनावश्यक – जण्णं कटुकम्मे वा पोत्थकस्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंधिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा श्रक्खे वा वराडए वा एगो वा प्रणेगो वा सब्भावठवणा वा प्रसन्भावठवणा वा श्रावस्सएत्ति ठवणा ठविज्जइ से तं ठवणावस्सयं । ( अनुयो. सू. १०, पृ. १२ ) । काष्ठकर्म, पुस्तकर्म अथवा पोतकर्म, चित्रकर्म, लेप्यकर्म, ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम, संघातिम, प्रक्ष अथवा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy