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________________ स्थापना ] १३. पू. २०१ ) ; स्थाप्यतेऽनया निर्णीतरूपेण श्रर्थ इति स्थापना । ( धव. पु. १३, पू. २४३ )। ६. वस्तुनः कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता । सद्भावेतरभेदेन द्विधा तत्त्वाधिशेषतः ॥ स्थाप्यत इति स्थापना प्रतिकृतिः, सा चाहितनामकस्येन्द्रादेवस्तवस्य तत्त्वाध्यारोपात् प्रतिष्ठा, सोऽयमभिसम्बन्धेनान्यस्य व्यवस्थापना, स्थापनामात्रं स्थापनेति वचनात् । (त. श्लो. १, ५, ५४, पृ. १११ ) । ७. सोऽयमित्यक्षकाष्ठादेः सम्बन्धेनान्यवस्तुनि । यद्व्यवस्थापना - मात्र स्थापना साभिधीयते ।। (त. सा. २ - ११) । ८. साकारे वा निराकारे काष्ठादो यग्निवेशनम् । सोऽयमित्यभिधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥ ( उपासका. ८२६; गो. क. जी. प्र ५१ उद्) । ६. स्थाप्यते इति स्थापना प्रतिकृतिः, सा च प्राहितनामकस्य अध्यारोपितनामकस्य द्रव्यस्य इन्द्रादेः सोऽयमित्य भिधानेन व्ययस्थापना । ( न्यायकु. ७४, पू. ८०५ ) | १०. यत्सेय मित्यभेदेन सदृशेतरवस्तुषु ॥ स्थापनं स्थापनं वात्प्रतिकृत्यक्षतादिषु ॥ ( प्राचा. सा. ६-६ ) | ११. तदाकृतिशून्यं वाऽक्षनिक्षेपादि तत्स्थापना | ( श्राव. नि. मलय. वू पृ. ६ ) ; स्थापना नाम द्रव्यस्याकारविशेषः । ( श्राव. नि. मलय. बृ. ८०, पृ. ४८७ ) । १२. काष्ठकर्मणि पुस्तकर्मणि लेपकर्मणि प्रक्षनिक्षेपे, कोऽर्थः ? सारनिक्षेपे बराटकादिनिक्षेपे च सोऽयं मम गुरुरित्यादिस्थापमाना या सा स्थापना कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-५ ) । १३. सोऽयं तत्समरूपे तद्बुद्धिस्थापना यथा प्रतिमा || (पंचाध्या. ७४३)। १४. श्रन्यत्र सोऽयमिति व्यवस्थापनं स्थापना । (परमा. त. १-६) । १ काष्ठकर्म, पुस्तककर्म, चित्रकर्म और प्रक्षनिक्षेप प्रादि में जो 'वह यह है' इस प्रकार से अध्यारोप किया जाता है, इसका नाम स्थापना है । २ विवक्षित वस्तु ( इन्द्र श्रादि) के अर्थ से रहित उसके प्राकारयुक्त काष्ठकर्म श्रादि अथवा उसके श्राकार से रहित प्रक्ष-निक्षेप जैसे सतरंज की गोटों में हाथी-घोड़ा श्रादि की जो कल्पना श्रल्पकाल के लिए अथवा यावद्द्रव्यभावो की जाती है उसे स्थापना कहते हैं । ३ जिसके नाम का श्रध्यारोप किया जा चुका है ऐसे विवक्षित द्रव्य को सद्भाव ( तदाकार ) या प्रसद्भाव ( श्रतदाकार ) स्वरूप से Jain Education International ११८७, जेन - लक्षणावलो [ स्थापनाकृति व्यवस्था की जाती है, इसे स्थापना कहा जाता है । ५ जिसके द्वारा निर्णीत रूप से अर्थ को स्थापित किया जाता है उसे स्थापना कहते हैं । यह धारणा ज्ञान का पर्यायन्दाम है । ११ द्रव्य के प्रकारविशेष का नाम स्थापना है । स्थापना- उद्गमदोष देखो स्थापित | साधुयाचितस्य क्षीरादेः पृथक्कृत्य स्वभाजने स्थापन स्थापना 1 (योगशा. स्वो दिन. १-३८, पृ. १३३ ) । साधु के द्वारा याचित दूध श्रादि को अलग करके अपने पात्र में स्थापित करने पर स्थापना उद्गमदोष होता है । स्थापनाकर्म- १. जं तं ठवणकम्मं णाम । तं कम्मे वा चित्तम्भेषु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मे वा कम्मे वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मे सु वा भित्तिकम्मे वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खोवा वराडो वा जे चामण्णे एवमादिया ठवपाए विदि कम्मेत्ति तं सव्वं ठवणकम्मं णाम । ( षट्ख ५४, ११, १२ - धव. पु. १३, पृ. ४१ ) । २. सरिसासरिसे दव्वे मदिणा जीवट्ठियं खुजं कम्मं । तं एवं त्तिपदिट्ठा ठवणा तं ठावणाकम्मं ॥ ( गो . क. ५३ ) । १ काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेंड कर्म तथा ग्रक्ष, वराटक एवं श्रौर भी जो इनको श्रादि लेकर कर्मरूप से स्थापना द्वारा स्थापित किए जाते हैं, इस सबको स्थापनाकर्म कहा जाता है । २ सदृश अथवा विसदृश द्रव्य में जो बुद्धि से 'यह जीवस्थित कर्म है' इस प्रकार की प्रतिष्ठा या अध्यारोप किया जाता है उसे स्थापनाकर्म कहते हैं । स्थापनाकायोत्सर्ग - पापस्थापनाद्वारेणागतातीचारशोधननिमित्तकायोत्सर्गपरिणत प्रतिबिंबता स्थापनाकायोत्सर्ग: । (मूला. वृ. ७-१५१) । पाप की स्थापना से श्राए हुए प्रतीचार को शुद्ध करने के लिए प्रतिबिम्बस्वरूप से कायोत्सर्ग में परिणत होने का नाम स्थापनाकायोत्सर्ग है । स्थापनाकृति- जा साठवणकदी णाम सा कट्टकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसुवा लेप्पकम्मेसु वा लेष्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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