SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थानाङ्ग ] ५. ठाणं णाम अंगं वायालीसपदसहस्सेहि ४२००० एगा दिएगुत्तरट्टणाणि वण्णेदि । तस्योदाहरणम् - एक्को चैत्र महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिदो। चदुचकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य 11 छक्कापक्कमत्त उवजुत्तो सत्तभंगसब्भावो । अट्ठा सवो वट्ठो जीवो दसठाणियो भणिदो || (पंचा. का. ७१-७२; धव. पु. १, पृ. १.० उद्.) ; स्थाने द्वाचत्वारिंशत्पदसहस्रे ४२००० एकाद्योत्तरक्रमेण जीवादिपदार्थाना दश स्थानानि प्ररूप्यन्ते । ( धव. पु पू. १८) । ६. द्विचत्वारिंशत्पदसहस्रसंख्यं जीवादिद्रव्यं काऽश्चेकोत्तरस्थानप्रतिपादकं स्थानम् ४२००० । (सं. श्रुतभ. टी. ७, पृ. १७२) । ७. पद्रव्यं काद्युत्तर स्थानव्याख्यानकारकं द्वाचत्वारिंशत्पदसहस्रप्रमाणं स्थानाङ्गम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२० ) । ८. बादालसहस्तपदं ठाणंगं ठाणभेयसंजुत्त । चिट्ठति ठाणभेया एयादी जत्थ जिणदिट्ठा || (अंगप. १-२३, पृ. २६१) । ११८६, जैन - लक्षणावली १ जिस अंगश्रुत में स्वममय, परसमय, स्व परसमय, जीव, श्रजीव, जीवन्यजीव, लोक, श्रलोक और लोक-लोक; इनको यथावत् स्वरूप के प्रतिपादन के लिए स्थापित किया जाता है, जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्याय के श्राश्रय से निरूपण किया जाता है; जहाँ पर्वत, जल (गंगा आदि नदियां), समुद्र, सूर्यविमान, भवनवासिविमान, सुवर्ण-चांदी श्रादि की खानें, निधियां, पुरुषप्रकार, षड्ज ऋषभादि स्वर, गोत्र और ज्योतिषियों के संचार; इनकी व्यस्वथा की गई है, तथा अध्ययन क्रम के अनुसार एक से लेकर दस प्रकार के वक्तव्य की स्थापना की जाती है उसे स्थानांग कहा जाता है। यह तीसरा अंगश्रुत है । ३ स्थानांग में श्रनेकाश्रयस्वरूप पदार्थों का निर्णय किया जाता है । ५ जिसमें एक से लेकर एक अधिक के क्रम से स्थानों की प्ररूपणा की जाती है उसे स्थानांग कहते हैं। जैसे महात्मा (जीव ) एक ही है, ज्ञान-दर्शन अथवा संसारी व मुक्त चल के भेद से दो प्रकार का है, उत्पाद व्यय - ध्रौव्यस्वरूप तीन लक्षण वाला है, चार गतियों में संक्रमण किया करता है, प्रोपशमिकादिरूप प्रमुख पांच गुणों से युक्त हैं, चार दिशाओंों के साथ ऊपर-नीचे इनके भेद से छह श्रपक्रमों या उपक्रमों से संयुक्त Jain Education International [ स्थापना सात भंगों के सद्भावस्वरूप है, आठ कर्मों के श्राव से युक्त है, नो पदार्थों को विषय करने वाला है; पृथिवी श्रादि चार, प्रत्येक व साधारण वनस्पति तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन दस स्थानों वाला है । स्थानान्तर - ट्टिमद्वाणमुवरिमाणम्हि सोहिय रूवणे कदे जं लद्धं तं ठाणंतरं णाम । ( व. पु. १२, पृ. ११४) । उपरिम स्थान में से अधस्तन स्थान को कम कर देने पर जो प्राप्त हो उसका नाम स्थानान्तर है । यह लक्षण अनुभागाध्यवस्थानप्ररूपणता के प्रसंग में किया गया है । स्थानी- स्थानम् ऊर्ध्व कायोत्सर्गः तद्विद्यते येषां ते स्थानिन: । ( प्रा. योगभ. टी. १२, पु. २०२ ) । स्थान नाम कायोत्सर्ग का है, वह जिन योगियों के है वे स्थानी कहलाते हैं । स्थापनस्थापन --स्थापनस्थापनं यो यस्य स्थापनाह यथाऽचार्य गुणोपेत आचार्यः स्याप्यते । ( उत्तरा. चू. पू. २४० ) । जो जिसको स्थापना के योग्य हो उसे स्थापनस्थापन कहते हैं। जैसे-जो प्राचार्य के गुणों से युक्त है उसकी प्राचार्य के रूप में स्थापना की जाती है । स्थापना - १. काष्ठ पुस्त-चित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना । (स. सि. १-५ ) 1 २. जं पुण तयत्थसुन्नं तयभिप्पाए। तारिसागारं । कीरइ व निरागारं इत्तरमियरं व साठवणा ।। (विशेषा. २६) । ३ प्राहितनामकस्य द्रव्यस्य सदसद्भावात्मना व्यवस्थापना स्थापना । (लघीय. स्वो. विव. ७४ ) ; आहितनामकस्य द्रव्यस्य सोऽयमिति संकल्पेन व्यवस्थाप्यमाना स्थापना । (लघीय. प्रभय. वृ. ७६, पृ. ६८ ) । ४ सोऽयमित्यभिसम्बन्धत्वेन श्रन्यस्य व्यवस्थापनामात्रं स्थापना । यथा परमेश्वर्यलक्षणो यः शचीपतिरिन्द्रः 'सोऽय' इत्यन्यवस्तु प्रतिनिधीयमान स्थापना भवति । (त. वा. १, ५, २) 1 ५. श्रहिणामस्स श्रण्णस्स सोयमिदि ट्ठवणं ट्ठवणा णाम । ( धव. पु. १, पृ. १६ ) ; सो एसो इदि प्रणहि बुद्धीए अण्णारोवणं ठवणा णाम । ( घव. पु. ४, पृ. ३१४ ) ; सोऽयमित्यभेदेन स्थाप्यतेऽन्योstri स्वापनयेति प्रतिनिविः स्थापना । ( धव. पु. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy