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________________ ३६ जैन लक्षणावली संसारी जीव श्रध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और प्रनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करके सम्यक्त्व ग्रहण के प्रथम समय में ही उस सम्यक्त्व गुण के द्वारा पूर्व के अपरीत संसार से हटकर अर्धपुद्गलपरिवर्त मात्र परीतसंसारी होता हुआ उतने काल ही उत्कर्ष से संसार में रहता है । जघन्य से वह अन्तर्मुहूर्त मात्र ही संसार में रहता है। सामायिक - इसका विधान मुनियों के छह आवश्यकों, चारित्रभेदों, प्रतिमात्रों, शिक्षाव्रतों तथा संयतभेदों या संयमभेदों के अन्तर्गत उपलब्ध होता है । पर उसके स्वरूप का विचार करते हुए तदनुसार उसका पृथक्-पृथक् विश्लेषण नहीं किया गया है- सर्वत्र उसका स्वरूप प्रायः समान रूप में ही दृष्टिगोचर होता है । नियमसार के नौवें परमसमाधि अधिकार ( १२५-३३ ) में सामायिकव्रत के योग्य कौन होता है, इसका विचार करते हुए कहा गया है कि जो समस्त जीवों में सम- राग द्वेष से रहित, संयम, नियम और तप में निरत; राग-द्व ेषजनित विकार से विहीन, श्रार्त व रौद्र रूप दुर्ध्यान से दूरवर्ती, पुण्य-पापरूप कर्म के विकार से विमुक्त, हास्यादि रूप नोकषानों से रहित, निरन्तर धर्म व शुक्लरूप प्रशस्त ध्यानों का ध्याता और ज्ञान एवं चारित्र में बुद्धि को लगाने वाला है उसके जिनशासन में सामायिकव्रत कहा गया है, अर्थात् उपर्युक्त विशेषताओं से विशिष्ट जीव ही उस सामायिक का अधिकारी होता है । मूलाचार (१-२३) में मुनि के २८ मूलगुणों के अन्तर्गत सामायिक प्रावश्यक के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि साधु जो जीवित और मरण, लाभ और अलाभ, संयोग और वियोग, मित्र और शत्रु तथा सुख और दुःख प्रादि में समता - राग-द्व ेष से रहित समानता का भाव रखता है, इसका नाम सामायिक है । यहीं पर आगे (७, १८-३२) मृनि के छह आवश्यकों के अन्तर्गत उस सामायिक का पुनः विस्तार से विवेचन करते हुए कहा गया है कि सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप के साथ जो जीवका प्रशस्त समागम — उनके साथ एकरूपता - होती है उसे समय कहा गया है; इस समय को ही सामायिक जानना 'चाहिए । यह सामायिक का निरुवत लक्षण है । जो जींव उपसर्ग व परीषहों पर विजय प्राप्त करके भाव - नामों और समितियों में उपयुक्त होता हुआ यम व नियम में बुद्धि को संलग्न करता है वह सामायिक से परिणत होता है, जो श्रमण स्व व पर में सम–राग-द्वेष से रहित होता है, माता और समस्त महिलाओं के विषय में सम होता है— उन्हें माता के समान मानता है, तथा प्रप्रियव प्रिय एवं मान व अपमान में समण ( समान) रहता है उसे ही सामायिक जानना चाहिए। जो द्रव्य, गुण और पर्याय के समवाय को- उनकी अपेक्षाकृत समानता को जानता है उसे उत्तम सामायिक जानना चाहिए। राग और द्वेष का निरोध करके समस्त कर्मों में जो समता और सूत्रों में- द्वादशांग श्रुत के विषय में - जो परिणाम होता है उसे उत्तम सामायिक जानना चाहिए। समस्त सावद्य से विरत तीन गुप्तियों से सुरक्षित और जितेन्द्रिय जीव का नाम ही सामायिक है जो उत्तम संयमस्थानस्वरूप है । जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में स्थित है; जो तस और स्थावर समस्त जीवों के विषय में सम — राग-द्वेष से रहित है, जिसके राग और द्वेष विकार को उत्पन्न नहीं करते, जिसने क्रोधादि चारों कषाओं को जीत लिया है, जिसके प्राहारादि संज्ञायें और कृष्णादि लेश्यायें विकार को उत्पन्न नहीं करतीं, जो रस व स्पर्शस्वरूप काम को तथा रूप, गन्ध और शब्दरूप भोगों को सदा छोड़ता है, तथा श्रार्त-रौद्र रूप दुर्ध्यानों को छोड़कर सदा धर्म व शुक्ल रूप समीचीन ध्यानों को ध्याता है उसके जिनगम के अनुसार सामायिक स्थित रहती है' । योगींदु विरचित योगसार ( ६६ - १०० ) में उक्त नियमसार के समान संक्षेप में समभाव को सामायिक का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है । १. इस प्रसंग से सम्बद्ध नियमसार के पद्य १२५-२९ व १३३ और मूलाचारगत पद्य क्रम से २३, २५,२४,२६,३१ और ३२ ये उभय ग्रन्थों में समान रूप में उपलब्ध होते हैं । (नि. सा. के पद्य १२५ और मूला. . के पद्य २३ का उत्तरार्ध भिन्न है ) । नि. सा. के पद्य १२६ व १२७ तथा प्रावश्यक नि. के पद्य ७९७ व ७६६ भी परस्पर में समान हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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