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________________ प्रस्तावना करणसंयम | त. वार्तिक में प्रन्यत्र ( ६, ६, १४) संयम के लक्षण में यह भी कहा गया है कि समितियों में प्रवर्तमान मुनि उनके परिपालन के लिए जो प्राणिपीड़ा और इन्द्रियविषयों का परिहार करता है वह संयम कहलाता है । इसका अनुसरण मूलाचार की वृत्ति (२१-५) और तत्त्वार्थवृत्ति ( ६-६ ) में भी किया गया है । ध्यानशतक की हरि वृत्ति ( ६ ) में प्राणातिपातादिकी निवृत्ति को संयम का लक्षण कहा गया है। इसका अनुसरणत. भाष्य ( ६-१३ व ६-२० ) की वृत्ति में भी किया गया है। उक्त हरिभद्र सूरि के द्वारा दश की वृत्ति ( १ - १ पृ. २१ ) में आस्रवद्वारों के उपरम को तथा त भाष्य ( ६- २० ) की वृत्ति में विषयकषायों की उपरति को संयम का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है । ३५ धवला में इसका लक्षण पांच स्थलों पर उपलब्ध होता है-जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, पु. १, पृ. १४४ पर व्रत, समिति, कषाय, दण्ड और इन्द्रिय इनके यथाक्रम से धारण, अनुपालन, निग्रह, त्याग और जय को संयम कहा गया है । यहीं पर आगे (पृ. १७६) गुप्तियों और समितियों से अनुरक्षित मुनि जो हिंसादि पांच पापों से विरत होता है, इसे संयम का लक्षण प्रगट किया गया है। आगे (पृ. ३७४ ) कहा गया है कि बुद्धिपूर्वक सावद्य से विरत होने का नाम संयम है । पु. ७, पृ. ७ पर पूर्वोक्त व्रतादि के रक्षण आदि को संयम का लक्षण कहा गया है । पु. १४, पृ. १२ पर विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध के प्रसंग में संयम और विरति में भेद को दिखलाते हुए कहा गया है कि समितियों के साथ महाव्रतों और अणुव्रतों को संयम और समितियों के बिना उक्त महाव्रतों और अणुव्रतों को विरति कहा जाता है । भ. आराधना की विजयो. टी. (६) में कर्मादान की कारणभूत क्रियाओं से उपरत होना, इसे संयम का लक्षण कहा गया है । यही अभिप्राय उसकी मूलाराधनादर्पण टीका ( ४ ) में भी व्यक्त किया गया है । अमितगतिश्रावकाचार (३-६१ ) के अनुसार धार्मिक, उपशान्त, गुप्तियों से सुरक्षित और परीषहों का विजेता अनुप्रेक्षाओं में तत्पर होता हुआ जो कर्म का संवरण करता है वह संयम कहलाता है, प्रवचनसार की जय. वृत्ति (१-७) में कहा गया है कि बाह्य इन्द्रियों व प्राणों के संयम के बल से अपनी शुद्ध प्रात्मा में संयमन होने के कारण जो समरसोभाव से परिणमन होता है उसे संयम कहते हैं । प्रचारसार ( ५- १४८) में निरुक्तिपूर्वक संयम के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से पवित्र व पाप का विघातक जो द्वन्दद्वितय --- प्राणिपीडा व इन्द्रियविषय इन दोनों का - यम ( त्याग ) किया जाता है। उसका नाम संयम है । प्रज्ञापना की मलयगिरि विरचित वृत्ति (३१६ की उत्थानिका) में निरवद्य योग में प्रवृत्ति और इतर ( सावद्य) योग से निवृत्ति को संयम कहा गया है । आाव. निर्युक्ति की मलय वृत्ति (८३१ ) के अनुसार समीचीन अनुष्ठान (सदाचरण ) का नाम संयम है । संसारपरीत - संसारपरीत और परीतसंसार ये दोनों शब्द समान अभिप्राय के बोधक हैं। मूलाचार (२-३६) के अनुसार जो जिनागम में अनुरक्त रहते हैं, गुरु की आज्ञा का भावतः परिपालन करते हैं, तथा अशबल - मिथ्यात्व की कलुषता से रहित होते हुए संक्लेश से रहित होते हैं वे परीतसंसार - परिमित संसार वाले होते हैं । प्रज्ञापना ( १८-२४७ ) में संसारपरीत का स्वरूप क्या है, इस गौतम गणधर के प्रश्न का समाधान करते हुए श्रमण महावीर के द्वारा कहा गया है कि संसारपरीत का अभिप्राय है संसार का कम से कम अन्तर्मुहूर्त मात्र और अधिक से अधिक अपार्ध पुद्गलपरिवर्त मात्र शेष रह जाना । प्रकृत सूत्र अभिप्राय को व्यक्त करते हुए मलयगिरि ने अपनी वृत्ति में कहा है कि जिसने सम्यक्त्व आदि के द्वारा संसारको परिमित कर दिया है वह संसारपरीत है । ऐसा जीव जघन्य से अन्तर्मुहूर्त मात्र संसार में रहता है, तत्पश्चात् अन्तकृत् केवलित्व के योग से वह मुक्त हो जाता है । उत्कर्ष से वह श्रनन्त काल -- श्रपार्ध पुद्गल परिवर्त प्रमाण - संसार में रहता है, तत्पश्चात् वह नियम से मुक्ति को प्राप्त हो जाता है । Jain Education International धवला (पु. ४, पृ. ३३५) में सादि - सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि के काल की प्ररूपणा के प्रसंग में अपतसंसार और परीतसंसार का विवेचन करते हुए कहा गया है कि एक अनादि मिथ्यादृष्टि परीत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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