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________________ सातिप्रयोग (मायाभेद ) ] पण किया जाता है उसे सातिचार छेदोपस्थान या छेदोपस्थाप्य कहा जाता है । सातिप्रयोग ( मायाभेद ) - प्रर्थेषु विसंवादः स्वहस्तनिक्षिप्तद्रव्यापहरणं दूषणं प्रशंसा वा सातिप्रयोगः । (भ. प्रा. विजयो. २५, पू. ६० ) । प्रथों के विषय में विसंवाद करना, अपने हाथों में रखे गए द्रव्य का अपहरण करना, दोषारोपण करना अथवा प्रशंसा करना; इसे सातिप्रयोग कहा जाता है । यह माया के पांच भेदों में तीसरा है । सातिशय मिथ्यादृष्टि - सम्यक्त्वोत्पत्ती अनादिमिथ्यादृष्टिः सादिमिथ्यादृष्टिर्वा जीवः कश्चित् क्षयोपशम- विशुद्धि - देशना प्रायोग्यलब्धीः प्राप्य प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या वर्षमानविशुद्धिपरिणामः सन् यदा प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखः करणलब्धि प्राप्तः तदा स सातिशयमिथ्यादृष्टि: XX X 1 (गो. जी. म.प्र. ६६ ) । सम्यक्त्व को उत्पन्न करते समय चाहे प्रनादि मिथ्यादृष्टि हो और चाहे सादिमिथ्यादृष्टि हो कोई जीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियों को प्राप्त करके प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ते हुए परिणामों से युक्त होता हुप्रा जब प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख होकर करणलब्धि को प्राप्त होता है तब वह सातिशय मिथ्यादृष्टि कहलाता है । सात्त्विकदाता १ स्वल्पवित्तोऽपि यो दत्ते भक्तिभारवशीकृतः । स्वाड्याश्चर्यकरं दानं सात्त्विकं तं प्रचक्षते ॥ ( श्रमित. श्रा ६-६ ) । २. श्रातिथेयं हितं यत्र यत्र पात्रपरीक्षणम् । गुणाः श्रद्धादयो यत्र तद्दानं सात्त्विकं विदुः ॥ (सा. घ. स्वो टी. ५, ४७ उद्) । १ धन के अल्प होने पर भी जो दाता श्रतिशय भक्ति के वश होकर स्वादिष्ट व श्राश्चर्यजनक दान को देता है उसे सात्त्विकदाता कहा जाता है । सादिनित्यपर्यायार्थिकनय कम्मखादुपत्तो ( द्र. स्व. दुप्पणी ' ) श्रविणासी जो हु कारणाभावे । इदमेवमुच्चरंतो भण्णइ सो साइणिच्चणो || ( ल. नयच. २८; द्रव्यस्व. प्र. नयच. २०० ) । जो सिद्ध पर्याय कर्मक्षय से उत्पन्न होने के कारण सादि होकर भी विनाश के कारणों के अभाव में श्रविनाशी है - शाश्वतिक है- उसे विषय करने Jain Education International [सादिसंस्थान वाले नय को सादि-नित्यपर्यायार्थिक नय कहते हैं । सादि वित्रसाबन्ध से तं बंधणपरिणामं पप्प से भाणं वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जूणं वा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहाणं वा घूमकेदूणं वा इंदाउहाणं वा से खेत्तं पप्प कालं पप्प उडुं पप्प श्रयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एवमादिया अंगमलप्पहुडीणि बंधणपरिणामेण परिणमंति सो सव्व सादिय विस्सा बंधो णाम । ( षट्खं. ५, ६, ३७ - धव. पु. १४, पृ. ३४ ) । बन्धन परिणाम को प्राप्त होकर जो प्रश्नों, मेघों, सन्ध्याओं, बिजलियों, उल्कानों, ज्योतिपिण्डों, दिशादाहों, धूमकेतुनों प्रथवा इन्द्रायुधों का देश, काल, ऋतु, श्रयन और पुद्गल को प्राप्त होकर बन्ध होता है तथा और भी जो अंगमल प्रादि बन्धन परिणाम से परिणत होते हैं; यह सब सादिविसाबन्ध का लक्षण है । सादिशरीरबन्ध - सरीरी णाम जीवो, तस्स जो बंघो ओरालियादिसरीरेहि सो सरीरिबंधो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ४५ ) । शरीरधारी (जीव ) का जो श्रदारिक श्रादि शरीरों के साथ बन्ध होता है उसे सादिशरीरिबन्ध कहा जाता है सादि सपर्यवसित श्रुतज्ञान - XXX इच्चेयं दुवाल संगं गणिपिडगं बुच्छित्तिनयट्ठाए साइअं सपज्जवसि । ( नन्दी. सू. ४२, पृ. १६५ ) । व्युच्छित्ति नय - पर्यायार्थिक नय- को अपेक्षा द्वादशांगस्वरूप गणिपिटक सादि सपर्यवसित (सादिसान्त) है । सादिसंस्थान -- देखो स्वातिसंस्थान । १. सादिनामस्वरूपं तु नाभेरधः सर्वावयवाः समचतुरस्रलक्ष ११४४, जैन- लक्षणावली विसंवादिनः उपरितनभागाः पुनर्नाघोऽनुरूपा इति (सिद्ध. वृ. 'उपरि तु तदनुरूपा:') । सादीति शाल्मलीतरुमाचक्षते प्रवचनवेदिनः, तस्य हि स्कन्धो द्राधीयानुपरि तु न (सिद्ध. वृ. 'परितना न' ) तदनुरूपा विशालतेति । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ८ - १२ ) । २. प्रादिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, ततः सह श्रादिना नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्तते इति सादि, यद्यपि सर्व शरीरमादिना सह वर्तते तथापि सादित्वविशेषणान्यथानुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपन्न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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