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________________ सागरोपम] ११४३, जैन-लक्षणावली [सातिचारछेदोपस्थान २ दस कोडाकोडी पल्योपमों का एक सागरोपम सातवेदनीय-देखो सद्वेद्य व सातावेदनीय । होता है। ३, ४,८ दस कोडाकोडी पल्यों का एक साताद्धा----सादबंधणपायोग्गकालो सादद्धा णाम । सागरोपम होता है। (घव. पु. १०, पृ. २४३) । सागरोपम-देखो सागर । सातावेदनीय के बांधने योग्य काल का नाम सागार-१. सागारोऽणुव्रतोऽत्र स्यादनगारो महा- साताद्धा है। व्रतः ॥ सागारो रागभावस्थो वनस्थोऽपि कथंचन। सातावेदनीय-१. सादं सुहं, तं वेदावेदि भुंजा(ह. पु. ५८, १३६-३७)। २. अनाद्यविद्यादोषो- वेदि त्ति सादावेदणीयं । (धव. पु. ६, पृ. ३५); स्थचतुःसंज्ञा-ज्वरातुराः । शश्वत्स्वज्ञानविमुखाः सत् सुखम्, सदेव सातम्, xxx सातं वेदयतीति सागारा विषयोन्मुखा: ॥ अनाद्यविद्यानुस्यूतग्रन्थ- सातवेदणीयं, दुक्खपडिकारहेदुदव्वसंपादयं दुक्खुप्पासंज्ञामपासितुम् । अपारयन्तः सागाराः प्रायो विषय- यणकम्मदव्वसत्तिविणासयं च कम्मं सादावेदणीयं मुच्छिता: ।। (सा.ध.२,२-३)। णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३५७) । २. सुहसरूवयं १ जो अणुव्रतों का परिपालन करता है उसे सागार सादं । (गो. क. १४) । ३. सातं सुखं सांसारिकम्, कहा जाता है। २ जो अनादिकालीन अज्ञानता के तद्भोजयति वेदयति जीवं सातवेदनीयम् । (मला. कारण अाहारादि चार संज्ञानों रूप ज्वर से व्या- वृ. १२-१८६) । ४. सातरूपेण यद् वेद्यते तत्सातकुल रहते हैं तथा प्रात्मज्ञान से विमुख होते हुए वेदनीयम् । यस्योदयात् शारीरं मानसं च सुखं वेदजो निरन्तर विषयों में श्रासक्त रहते हैं व परिग्रह यते तत्सातवेदनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. को नहीं छोड़ सकते हैं वे सागार कहलाते हैं। ४६७)। ५. रतिमोहनीयोदयबलेन जीवस्य सुखकासागारिक-- अगमकरणादगारं तस्सहजोगेण होइ रणेन्द्रियविषयानुभवनं कारयति तत्सातवेदनीयम् । सागारी। (बृहत्क. ३५२२)। (गो. क. जी. प्र. २५)। प्रगमों-गमनागमन न कर सकने वाले वक्षों-से १सात नाम सुख का है, जो कर्म उसका वेदन जो किया जाता है उसका नाम अगार है, इस कराता है उसे सातावेदनीय या सातवेदनीय कहते अगार (गृह) से जिसका सम्बन्ध रहता है उसे हैं। ४ जिसका अनुभवन सातस्वरूप से किया जाता सागारिक-- वसति का स्वामी-कहा जाता है। है, अर्थात जिसके उदय से शारीरिक और मानसाङ्गार भोजन-तं होइ सइंगालं जं पाहारेइ सिक सुख का वेदन होता है उसे सातवेदनीय कहा मुच्छियो संतो। (पिण्डनि. ६५५) । जाता है। स्वाद में प्रासक्त होकर जिस भोजन की प्रशंसा सातिचार छेदोपस्थान-देखो छेदोपस्थापन । १. करता हया उसका उपभोग करता है वह साकार, छेदोपस्थानमेव छेदोपस्थाप्यम, पूर्वपर्यायच्छेदे सति नामक ग्रासैषणा दोष से दूषित होता है। उत्तरपर्याये उपस्थापनं भावे यतो विधानात् । साचीसंस्थान-देखो सादिसंस्थान । तदपि द्विघा सातिचार-निरतिचारभेदेन xxx सात गौरव...१. निकामभोजने निकामशयनादौ सातिचारं तु भग्नमूलगुणस्य पुनर्वतारोपणात् छेदोपवा आसक्तिः सातगौरवम् । (भ. प्रा. विजयो. स्थाप्यम् । (त. भा. सिद्ध. व. ६-१८)। २. साति६१३) । २. सातगारवं भोजन-पानादिसमुत्पन्न- चारं (छेदोपस्थापनं) यन्मूल गुणघातिनः पुनर्वतोसौख्यलीलामदः । (भावप्रा. टी. १५७) । च्चारणम् । उक्तं च-XXX मूलगुणघाइणो १ भोजन अथवा शयन प्रादि में अतिशय प्रासक्ति साइयारमुभयं xxx ॥ (प्राव. नि. मलय. व. का नाम सातगौरव है। ११४)। सातवशार्तमरण--शारीरे मानसे वा सुखे उप- १ जिस चारित्र में पूर्व पर्याय को छेदकर महाव्रतों युक्तस्य मरणं सातवशार्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. में स्थापना की जाती है उसे छेदोपस्थान या २५)। छेदोपस्थाप्य चारित्र कहते हैं । वह सातिचार और शारीरिक अथवा मानसिक सुख में उपयोग लगाने निरतिचार के भेद से दो प्रकार का है। जिसका वाले के मरण को सातवशार्तमरण कहते हैं। मूलगुण भंग हुमा है उसके व्रत का जो पुनः प्रारो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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