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________________ प्रस्तावना १७. यथावस्थित जीवादिकों का भावतः श्रद्धान (उत्तराध्ययन) १८. ययार्थ शुद्ध भावों की निसर्ग अथवा अधिगम से होनेवाली रुचि (उत्तराध्ययन चूणि) १६. तत्त्वार्थ श्रद्धान (तत्त्वार्थसूत्र) २०. निश्चय से यही तत्त्व है, ऐसा अर्थविषयक अध्यवसाय (प्रशमरति प्रकरण) २१. परमार्थभूत प्राप्त, पागम और गुरु का निर्दोष श्रद्धान (रत्नकण्डक) २२. प्रात्मा को आत्मा समझना (परमात्मप्रकाश) २३. जिनोपदिष्ट छह, पांच और नौ प्रकार के पदार्थों का आज्ञा व अधिगम से होने वाला श्रद्धान (दि. पंचसंग्रह) २४. प्रणिधानविशेष से आहित निसर्ग व अधिगम रूप दो प्रकार के व्यापार से होने वाला श्रद्धान (तत्त्वार्थवार्तिक) २५. प्रशम, संवेग, अनकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति (धवला) २६. जिस दृष्टि से भली भांति जीवादि पदार्थों का श्रद्धान होता है वह दृष्टि (धवला) २७. जिनप्रणीत प्रवचन पर श्रद्धा (वरांगचरित) २८. दर्शनविघातक कर्मों के क्षयादि से होनेवाली जिनोपदिष्ट समस्त द्रव्य-पर्यायविषयकरुचि (त. भा. सिद्ध. वृत्ति) २६. अविपरीत पदार्थों को ग्रहण करने वाली दृष्टि (त. भा. सिद्ध. वृत्ति) ३०. आत्म विनिश्चिति (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय) ३१. द्रव्य व पदार्थ के विकल्प युक्त धर्मादिकों के तत्त्वार्थश्रद्धानमावस्वभाव श्रद्धान नामक भावान्तर (पंचा. अमृत वृत्ति) ३२. शुद्ध नय की अपेक्षा एकत्व में नियत, व्यापक एवं पूर्ण ज्ञानघनस्वरूप प्रात्मा को द्रव्यान्तरों से पृथक् देखना (समयसारकलश) ३३. जैसी वस्तु है उसी प्रकार का ज्ञान जिसके आश्रय से प्रात्मा के होता है (योगसारप्रभृत) ३४. विपरीतता से रहित जिन प्रणति तत्त्वप्रतिपत्ति (प्रज्ञापना मलय वृत्ति) संग्रहनय - इसके लक्षण का निर्देश करते हुए सर्वार्थसिद्धि (१-३३) में कहा गया है कि जो अपनी जातिका विरोध न करके अनेक भेद यक्त पर्यायों को सामान्य से एक रूप में ग्रहण करता है उसे संग्रहनय कहते हैं। समस्तको ग्रहण करने के कारण इसका संग्रहनय यह सार्थक नाम है। त. भाष्य (१-३५, पृ. ११८) के अनुसार पदार्थों का जो सर्वदेश अथवा एकदेश रूप से संग्रहण होता है उसका नाम संग्रहनय है। यहीं पर प्रागे (प. १२३) एक शंका के समाधान रूप में पुनः यह कहा गया है कि नाम-स्थापनादि से विशिष्ट एक अथवा बहत साम्प्रत, अतीत व अनागत घटों में जो सम्प्रत्यय- सामान्य बोध ---होता है उसे संग्रहनय कहा जाता है। मागे वहाँ नयविषयक विरोध की आशंका का निराकरण करते हुए 'पाह च' ऐसा निर्देश करके ४ कारिकायें उद्धृत की गई हैं। उनमें से दूसरी कारिका में संग्रहनय के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो सामान्यविषयक अथवा देशतः विशेषविषयक संगृहीतवचन है उस संग्रहनय से नियत ज्ञान को संग्रहनय जानना चाहिए। अनुयोगद्वार गाथा १३७ (पृ. २६४) व प्राव. नियुक्ति १३७ के अनसार जो संग्रहवचन पदार्थों को पिण्डित रूप में ग्रहण करता है उसे संग्रहनय जानना चाहिये। विशेषा. भाष्य (७६ व २६६६) में भावसाधन, कर्तृसाधन और करणसाधन के प्राश्रय से कहा गया है कि सामान्य से भेदों के पिण्डित अर्थ के रूप में होने वाले संग्रह को, जो उनका संग्रह करता है, अथवा जिसके द्वारा उनका संग्रह किया जाता है उसका नाम संग्रहनय है । यह उसका सार्थक नाम है। त. वार्तिक (१,३३, ५) में पूर्वोक्त सर्वार्थसिद्धिगत लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अपनी चेतन-अचेतन रूप जाति से च्यूत न होकर जो एकता को प्राप्त कराकर भेदों का संग्रह-समस्त रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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