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________________ ३२ जैन लक्षणावली गया हैं। यहां सम्यग्दृष्टि उस जीव को कहा गया है जिसकी सुन्दर दृष्टि समीचीन पदार्थों का अवलोकन किया करती है। आगे इसी वृत्ति (२-३) में तत्त्वरुचि को और तत्त्वार्थश्रद्धान (७-६ व ८-१०) को भी सम्यक्त्व का लक्षण कहा गया है । सूत्र ६-४ की वृत्ति में प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति को सम्यग्दर्शन का लक्षण बतलाया गया है। भ.पाराधना की विजयोदया टीका (१६) के अनुसार वस्तु की यथार्थता के श्रद्धान का नाम दर्शन है। पूरुषार्थसिद्धयुपाय (२१६) में आत्मविनिश्चिति-पर से भिन्न प्रात्मा के निर्णय -..को दर्शन कहा गया तत्त्वार्थसार १-४ व २-६१ में तत्त्वार्थश्रद्धान को कम से दर्शन व सम्यक्त्व कहा गया है। पंचास्तिकाय की अमृतचन्द्र विरचित वृत्ति (१६०) में द्रव्य व पदार्थ के विकल्प युक्त धर्मादिकों के श्रद्धान नामक तत्त्वार्थश्रद्धानभावस्वभाव भावान्तर को सम्यक्त्व का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। योगसारप्राभत -१६) के अनुसार जिसके प्रश्रिय से जैसी वस्तु है उसका उसी रूप में जो ज्ञान होता है उसे जिन भगवान के द्वारा सम्यक्त्व कहा गया है, वह सिद्धि (मुक्ति) के सिद्ध करने में समर्थ है। उपासकाध्ययन (२६७) में सम्यक्त्व का लक्षण तत्त्वविषयक रुचि कहा गया है । सावयधम्मदोहा (१६) व वसुनन्दिश्रावकाचार (E) में प्रायः समान शब्दो में यह कहा गया है कि प्राप्त, आगम और तत्त्वों का शंकादि दोषों से रहित जो निर्मल श्रद्धान होता है उसे सम्यक्त्व जानना चाहिये । जीवन्धरचम्पू (७-६) में प्राप्त, आगम और पदार्थों के श्रद्धान को दर्शन का लक्षण कहा गया है । जैसा कि धवला (पु. ६, पृ. ३८) में निर्दिष्ट किया जा चका है तदनुसार आचारसार (३-३) में भी प्राप्त, आगम और पदार्थ विषयक रुचि को सम्यक्त्व कहा गया है। द्रव्यसंग्रह (४१) में सम्यक्त्व का लक्षण जीवादि का श्रद्धान प्रगट किया गया है। स्थानांग की अभय. वृत्ति (१-४३) में 'दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेनास्मादस्मिन् वेति दर्शनम्' इस निरुक्ति के अनुसार दर्शनमोहनीय के क्षय या क्षयोपशम को तथा 'दृष्टिर्वा दर्शनम्' इस निरुक्ति के अनुसार उक्त दर्शन मोहनीय के क्षय आदि के आश्रय से प्रादुर्भूत तत्त्वश्रद्धानरूप प्रात्मपरिणाम को दर्शन कहा । लगभग इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए प्राव. नियुक्ति की मलयगिरि विरचित वृत्ति (१२१) में भी आत्मपरिणतिस्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन का लक्षण प्रगट किया गया है। इस प्रकार संक्षेप में उक्त सम्यग्दर्शन के लक्षणों को निम्न रूपों में देखा जा सकता है१. सम्यक्त्व, संयम या उत्तम धर्मस्वरूप मोक्षमार्ग का दर्शक (बोधप्राभत) २. जीवादि नौ पदार्थों का श्रद्धान (पंचास्तिकाय) ३. धर्मादिकों का श्रद्धान (पंचास्तिकाय) ४. भूतार्थ का आश्रय (समयप्राभृत) ५. भूतार्थ स्वरूप से अधिगत जीवादि (समयप्राभूत) . ६. जीवादि का श्रद्धान (समयप्राभूत) ७. प्राप्त, आगम और पदार्थों का श्रद्धान (समयप्राभृत) ८. आप्त, आगम और तत्त्वों का श्रद्धान (नियमसार) ६. विपरीत अभिनिवेश से रहित श्रद्धान ( , ) १०. चल, मलिन और अगाढ़ता से रहित श्रद्धान (नियमसार) ११. छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्व इनके स्वरूप का श्रद्धान (दर्शनप्राभृत) १२. जीवादिका श्रद्धान (व्यवहार सम्यग्दर्शन), आत्मा का श्रद्धान (निश्चय सम्यग्दर्शन) दर्शनप्राभूत १३. तत्वरूचि (मोक्षप्राभृत व बृहत्कल्प) १४. हिंसारहित धर्म, अठारह दोषरहित देव, निर्ग्रन्थ गुरु और प्रवचन विषयक श्रद्धान (मोक्षप्राभूत) १५. जिनोपदिष्ट ही यथार्थ है, ऐसा भावतः ग्रहण (मूलाचार) १६. मार्ग ही सम्यक्त्व है (मूलाचार) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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