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________________ संकुचितदोष] १११८, जैन-लक्षणावली [संक्षेपरुचि होता है उसका नाम संकल्प है। इस प्रकार विषय- मरण कहते हैं। भेद से संकल्प अनेक प्रकार का है। संक्लिष्ट-१. पूर्वजन्मनि सम्भावितेनातितीव्रण संकुचित दोष-कुंचितहस्ताभ्यां शिरः परामर्श । संक्लेशपरिणामेन यदुपाजितं पापकर्म तस्योदयात् कुर्वन यो वन्दनां विदधाति जानुमध्ययोर्वा शिरः सततं क्लिष्टाः संक्लिष्टाः। (स. सि. ३-५)। कृत्वा संकुचितो भूत्वा यो वन्दनां करोति तस्य २. पूर्वभवसंक्लेशपरिणामोपात्ताशुभकर्मोदयात् सतत संकचितदोषः । (मला. व. ७-१०८) । क्लिष्टाः संक्लिष्टाः। पूर्वजन्मनि भावितेनातितीवेण संकुचित हाथों से शिर का स्पर्श करते हुए जो संक्लेशपरिणामेन यदुपाजितं पापकर्म तस्योदयात् वन्दना करता है अथवा घुटनों के बीच में शिर को सततमविरतं क्लिष्टाः संक्लिष्टाः। (त. वा. ३, करके व संकुचित होकर जो वन्दना करता है ५, १)। उसके संकुचित नाम का वन्दना का दोष होता है। पूर्व जन्म में सम्भावित अतिशय तीव्र संक्लेश संकुट-देखो संकट । परिणाम से जिस पापकर्म को उपाजित किया गया संक्रम-देखो सङ्क्रमण । सो संकमो त्ति वुच्चइ जं है उसके उदय से जो निरन्तर संक्लेश को प्राप्त बंधणपरिणयो पोगेणं । पगयंतरत्थदलियं परिणम- होते हैं उन्हें संक्लिष्ट (असुरकुमार विशेष) कहते हैं। यइ तयणुभावे जं ।। (कर्मप. सं. क. १)। संक्लेश-१. प्रार्त-रौद्रध्यानपरिणामः संक्लेशः । जिस प्रकृति के बन्धक स्वरूप से परिणत जीव (प्रष्टशती ६५) । २. प्रसादबंधजोग्गपरिणामो संक्लेश अथवा विशद्धिरूप प्रयोग के वश बध्यमान संकिलेसो णाम । (धव. पु. ६, पृ. १८०); असादप्रकृति को छोड़कर दूसरी प्रकृति के परमाणुनों को बंधपायोग्गकसाउदयदाणाणि संकिलेसो। (धव. पु. बध्यमान प्रकृति के स्वरूप से परिणमाता है उसे ११, पृ. २०६)। ३. मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमादसंक्रम कहते हैं। परिणामः संक्लेशः । (त. श्लो. ९-३०)। संक्रमण- देखो सङ्क्रम । १. तत्थ पगति-ट्ठिति- १ पात और रौद्र ध्यानरूप परिणामों को संक्लेश अणुभाग-पदेसाणं अण्णहाभावपरिणामणं अण्णपगति- कहा जाता है। २ असाता वेदनीय के बन्धयोग्य परिणामणं इह वा संकमणकरणं । (कर्मप्र. चू. २)। परिणाम का नाम संक्लेश है । २. संकमणमणत्थ गदी xxx ॥ (गो. क. संक्लेशस्थान----असाद-अथिर असुह-दुभग-दुस्सर४३८) । ३. एतदुक्तं भवति-बध्यमानासु प्रकृतिषु अणादेज्जादीणं परियत्तमाणियाणमसुहपयडीणं बंधमध्येऽबध्यमानप्रकृतिदलकं प्रक्षिप्य बध्यमानप्रकृति- कारणकसाउदयट्ठाणाणि संकिलेसटाणाणि। (धव. रूपतया यत्तस्य परिणमणं, यच्च वा बध्यमानानां पृ.११.प. २०८)। प्रकृतीनां दलकरूपस्येतरेतररूपतया परिणमनं तत् प्रसाता, अस्थिर, प्रशभ, दुर्भग, दुःस्वर और प्रनासर्वं संक्रमणमित्युच्यते । (कर्मप. सं. क. मलय. वृ. देय आदि परिवर्तमान अशुभ प्रकृतियों के बन्ध के १)। ४. परप्रकृतिरूपपरिणमनं संक्रमणम् । (गो. कारणभूत कषायोदयस्थानों को संक्लेशस्थान कहा क. जी. प. ४३८)। जाता है। १ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों का अन्यथा संक्षेपरुचि---१. अणभिग्गहियकूदिदी, संखेवरुइस्वरूप से परिणमाना अथवा यहीं अन्य प्रकृतिरूप त्ति होइ नायव्वो। अविसारो पवयण, अणभिग्गपरिणमाना, इसका नाम संक्रमणकरण है। २ विव- हिनो य सेसेसु ॥ (उत्तरा. २८-२६, प्रज्ञाप. गा. क्षित प्रकृति का जो अन्य प्रकृति में गमन या परि- १२५, पृ. ५६; प्रव. सारो. ९५६) । २. जीवादिवर्तन होता है उसे संक्रम या संक्रमण कहते हैं। पदार्थसमाससंबोधनसमुद्भुतश्रद्धानाः संक्षेपरुचयः । संक्लिश्यमरण---दर्शन-ज्ञान-चारित्रेषु संक्लेशं (त. वा. ३, ३६, २)। ३. XXX पदार्थान् । कृत्वा मरणं संक्लिश्यमरणम् । (भ. प्रा. मूला. संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः॥ २५) । (प्रात्मानु. १३)। ४. xxx पदार्थानां संक्षेसम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषय में संक्लेश पोक्त्या समुद्गता। या सा संक्षेपजा xxx ॥ को प्राप्त होते हुए जो मरण होता है उसे संक्लिश्य- (म. पु. ७४-४४५)। ५. प्राप्त-श्रुत-व्रत-पदार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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