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________________ सहज शत्रु] १११७, जैन-लक्षणावली [संकल्प सहज शत्रु-समाभिजनः सहजशत्रुः । (नीतिवा. भ्याख्यान कहा जाता है। यह सत्याणुव्रत का एक २९-३३, पृ. ३२१)। अतिचार है। जो सम्पत्ति प्रादि का उत्तराधिकारी होता है उसे सहानवस्थालक्षण विरोध-सहानवस्थालक्षणो सहज शत्रु माना गया है, वह कभी भी भलाई का हि विरोधः पदार्थस्य पूर्वमुपलम्भे पश्चात्पदार्थान्तरविचार नहीं करता। सद्भावादभावावगतौ निश्चीयते शीतोष्णवत् । (प्र. सहन --सहनं चास्य कियादिवादिनां विचित्रमत- क. मा. परि. ४, सू. ६, पृ. ४६८)। श्रवणेऽपि निश्चलचित्ततया घारणम् । (समवा. पदार्थ का पूर्व में उपलम्भ होने पर पश्चात् अन्य अभय. वृ. २२)। पदार्थ के सदभाव से उसके प्रभाव का ज्ञान होने क्रिया-प्रक्रिया विडियों मनमानेपर पर दोनों में जो विरोध देखा जाता है उसे सहानभी निश्चल चित्त रहना--क्रोध आदि न करना, वस्थारूप विरोध समझना चाहिए। यह प्रज्ञानपरोषह का सहन है । संकट-१. अइसण्हदेहपमाणेन संकुडदि त्ति संकुसहसानिक्षेपाधिकरण-१. उपकरणं पुस्तकादि, डो। (धव. पु. १, पृ. १२०); संहरधर्मत्वात्संकटः। शरीरं शरीरमलानि वा सहसा शीघ्र निक्षिप्यमा (धव. पु. ६, पृ. २२१)। २. व्यवहारेण सूक्ष्मणानि भयात् कुतश्चित्कार्यान्तरकरणप्रयुक्तेन वा निगोदलब्ध्यपर्याप्तकसर्वजघन्यशरीरप्रमाणेन संकुत्वरितेन षड्जीवनिकायबाधाधिकरणतां प्रतिपद्यन्ते । टति संकुचितप्रदेशो भवतीति संकुटः। (गो. जी. (भ. प्रा. विजयो. ८१४) । २. पुस्तकाद्युपकरण जी. प्र. टी. ३३६) । ३. जहण्णेण संकुइदपदेसो शरीरतन्मलानि भयादिना शीघ्र निक्षिप्यमाणानि संकुडो। (अंगप. २, ८६-८७, पृ. २६५) । षड्जीवबाघाधिकरणत्वात् सहसानिक्षेपः । (अन. १ जीव अतिशय श्लक्ष्ण (सूक्ष्म) शरीर के प्रमाण प्रात्मप्रदेशों से संकुचित हो सकता है, इसीलिए घ. स्वो. टी. ४-२८)। उसे संकट या संकुट कहा जाता है। १ पुस्तक प्रादि उपकरण, शरीर अथवा शरीरगत संकर-१. संकरोऽयोग्यरसंयतैः सह मिश्रणम् । मल इनको सहसा-शीघ्रता से-रखने पर अथवा (भ. प्रा. विजयो. २३२) । २. संकरोऽसंयतः सह भय से या किसी अन्य कार्य में दत्तावधान होने से मिश्रणम् । (भ. प्रा. मूला. २३२)। शीघ्रतावश रखे गये उपर्युक्त उपकरण प्रादि प्राणि १ अयोग्य और असंयमी जनों से मिश्रण होना, समूह की बाधा के प्राधार होते हैं । इसलिए इसे इसका नाम संकर है। क्षपक के लिए निर्दिष्ट सहसानिक्षेपाधिकरण कहा जाता है। विविक्त वसति में इस प्रकार का संकर संभव सहसादोष-पालोकन-प्रमार्जनेऽकृत्वा पुस्तकादेरा- नहीं है। दानं निक्षेपं वा कुर्वत एकः सहसाख्यो दोषः । (भ. संकल्प- १. व्यापादनाभिसंघिः संकल्पः। (श्रा. प्रा. मला. ११६८)। प्र.टी. १०७) । २. बहिर्द्रव्ये चेतनाचेतन-मिश्रे अवलोकन व प्रमार्जन न करके पुस्तक आदि का ममेदमित्यादि परिणामः संकल्पः । (पंचा. जय. वृ. ग्रहण करना या रखना, यह एक प्रादान-निक्षेपण. ८)। ३. इष्टाङ्गनादर्शनादिना तां प्रत्युत्कण्ठागों समिति का सहसा नामक दोष है। मनोव्यापारः संकल्पः । (अन. घ. स्वो. टी. ४, सहसाऽभ्याख्यान--१. सहसा अनालोच्य अभ्या- ६५)। ख्यानं सहसाऽभ्याख्यानम् । (प्राव. हरि. व. अ. ६, १ प्राणियों के घात प्रादि का जो विचार होता है पृ.८२१)। २. सहसा अनालोच्याभ्याख्यानमसद्दो- उसे हिसा-अहिंसा के प्रसंग में संकल्प कहा जाता षाध्यारोपणं यथा चौरस्त्वं पारदारिको वेत्यादि। है। २चेतन, अचेतन और मिश्र द्रव्यों में जो 'यह (योगशा. स्वो. विव. ३-६१)। मेरा है और मैं इसका स्वामी हैं' इस प्रकार का २ समुचित विचार न करके कथन करना तथा जीवका अभिप्राय होता है उसे प्रकृत में संकल्प अविद्यमान दोषों का प्रारोप करना-जैसे तुम कहते हैं। ३ अभीष्ट स्त्री के देखने प्रादि से जो चोर हो, परस्त्रीगामी हो इत्यादि, इसे सहसा- उसके प्रति उत्कण्ठा से प्रेरित मन का व्यापार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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