SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रेयांस] श्रेयांस - सकलभुवनस्यापि प्रशस्यतमत्वेन श्रेयान्, श्रेयांसावंसावस्येति 'पृषोदरादित्वात्' श्रेयांसो वा, तथा गर्भस्थेऽस्मिन् केनाप्यनाक्रान्तपूर्वा देवताधिष्ठितशय्या जनन्या आक्रान्तेति श्रेयो जातमिति श्रेयांसः । (योगशा. स्वो विव. ३ - ३२४) । समस्त लोक में अतिशय श्रेष्ठ होने के कारण ११ वें तीर्थंकर श्रेयान् कहलाए। श्रथवा दोनों कन्धों के श्रेयस्कर होने से वे यांस इस नाम से प्रसिद्ध हुए, श्रथवा गर्भ में स्थित होने पर देवता के द्वारा श्रधिष्ठित जो शय्या पूर्व में किसी के द्वारा नहीं लांघी गई थी उसे माता ने श्राक्रान्त किया व उससे कल्याण हुआ, इससे उन्हें श्र ेयांस कहा गया है। श्रेयोमार्ग नेता - ततो निःशेषतत्त्वार्थवेदी प्रक्षीणकल्मषः । श्रेयोमार्गस्य नेतास्ति स संस्तुत्य स्तदर्थभिः ॥ (त. इलो. का. ४३, पृ. १६) । जो समस्त तत्त्वार्थ का ज्ञाता व कलुषता से रहित ( वीतराग ) है वही मोक्षमार्ग का नेता हो सकता है और मोक्ष के इच्छुक भव्य जन उसी की स्तुति किया करते हैं। श्रेष्ठी- श्रेष्ठी तुष्टनरपतिप्रदत्त - श्रीदेवताध्यासितवर्णपट्टविभूषितोत्तमांगो नगरचिन्ताकारी नागरिकजनश्रेष्ठः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-३३) । जिसका शिर सन्तुष्ट राजा के द्वारा दिए गए धोर श्रीदेवता से श्रधिष्ठित सुवर्णमय पट्ट से विभूषित होता है, जो नगर की चिन्ता करता है तथा जो नागरिक जनों में श्र ेष्ठ होता है उसे श्र ेष्ठी कहा जाता है । श्रोता - देखो शिष्य । धर्मश्रुतौ नियुक्ता ये श्रोतारस्ते मता बुधैः । (म. पु. १ - १३८ ) | जो धर्मकथा के सुनने में नियुक्त हैं वे श्रोता माने गये हैं । श्रोत्र - १. वीर्यान्तराय श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भाच्छृणोत्यनेनेति श्रोत्रम् | ( धव. पु. १, पृ. २४७ ) ; फासिंदियावरणस्स सव्व - घादिफद्दयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण चदुष्णमंदियाणं सव्वघादिफद्दयाणमुदय क्खएण तेसि चेव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण जेण सोदिदियमुपज्जदि तेण XXX। ( धव. पु. ७, पृ. ६५-६६ ) । २. श्रूयते श्रात्मना शब्दो गृह्यतेऽने ल. १३५ Jain Education International १०७३, जैन- लक्षणावली [ श्रोत्रिय नेति श्रोत्रं शृणोतीति वा श्रोत्रम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-१६) । १ वीर्यान्तराय और श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के लाभ के श्राश्रय से जिसके द्वारा प्राणी सुनता है उसे श्रोत्र कहते हैं । यह स्पर्शनेन्द्रियावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के सदवस्था रूप उपशम से देशघाती स्पर्धकों के उदय से तथा शेष चार इन्द्रियों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से, उन्हों के सदवस्थारूप उपशम से एवं देशघाती स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होती है । श्रोत्रदण्ड - - देखो श्रोत्ररोध । श्रोत्ररोध -- १. सड्गादिजीवसद्दे वीणादिश्रजीवसंभवे सद्दे । रागादीण णिमित्तं तदकरणं सोदरोधो दु ।। ( मूला. १ - १८ ) । २. जीवाजीवोभयोद्भूते चेतोहारी तरस्वरे । राग-द्वेषाविलस्वान्तदण्डनं श्रोत्रदण्डनम् || ( श्राचा. सा. १ - २६ ) । १ षड्ग [ षड्ज ] व ऋषभ आदि स्वर स्वरूप जीव के शब्द और वीणा श्रादि श्रजीव स्वरूप वादित्र प्रादि के निमित्त से उत्पन्न होने वाले शब्द के श्राश्रय से जो उसके विषय में राग-द्वेष उत्पन्न हो सकते हैं। उनको उत्पन्न न होने देना, इसे श्रोत्र - इन्द्रिय रोध कहते हैं । २ जीव, प्रजीव, अथवा दोनों के निमित्त से उत्पन्न हुए मनोहर श्रथवा श्रमनोहर ( श्रवणकटु) स्वर के विषय में राग-द्वेष से मलिन मन को दण्डित करना - उसके सुनने पर राग-द्वेष को उत्पन्न न होने देना, इसे श्रोत्रदण्डन या श्रोत्रइन्द्रियरोध कहा जाता है। यह साधु के २८ मूलगुणों के अन्तर्गत है । श्रोत्रिय - १. सोत्तिश्रो भणिज्जइ णारीकडिसोत्तवज्जिश्रो जेण । जो तु रमणासत्तो ण सोत्तियो सो जडो होइ ॥ श्रहवा पसिद्धवयणं सोत्तं णारीण सेवए जेण । मुत्तपवहणदारं सोत्तियो तेण सो उत्तो ॥ ( भावसं. दे. ५५ - ५६ ) । २. दुष्कर्मदुर्जनास्पर्शी सर्व सत्त्वहिताशयः । स श्रोत्रियो भवेत् सत्यं न तु यो बाह्यशौचवान् ।। ( उपासका ८८०) । १ जो स्त्री के कटिस्रोत से दूर रहता है—उसका सेवन नहीं करता - वह वास्तव में श्रोत्रिय है, उसके साथ रमने में जो आसक्त है वह यथार्थ में श्रोत्रिय नहीं है । २ जो दुराचरण से दूर रहता है, बुष्ट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy