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________________ [श्रेय श्रुतातिचार] १०७२, जैन-लक्षणावली विति ॥ (प्रा. पंचसं. १-११६; धव. पु. १, पृ. श्रुति-धम्मस्स श्रवणं श्रुतिः श्रूयते वा । (उत्तरा. ३५८ उद्.; गो. जी. ३०४)। चौरशास्त्र, हिंसाशास्त्र, भारत एवं रामायण प्रादि धर्म के सुनने को अथवा जो कुछ सुना जाता है उसे के जो निरर्थक उपदेश सिद्धि के योग्य नहीं हैं उन्हें श्रुति कहते हैं। श्रुताज्ञान कहा जाता है। श्रेणि-१. लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् चाश्रुतातिचार-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावशुद्धिमंतरेण श्रु- काशप्रदेशानां क्रमसन्निविष्टानां पंक्तिः श्रेणिः । (स. तस्य पठनं श्रृतातिचारः । (भ. प्रा. विजयो. १६)। सि.२-२६)। २. प्राकाशप्रदेशपंक्तिः श्रेणिः । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धि के विना श्रुत लोकमध्यादारभ्योधिस्तिर्यकक्रमाकाशप्रदेशानां क्रके पढने से उसका अतिचार होता है, जो उसे मलिन मसहिविष्टानां पंक्ति श्रेणिः । (त. वा. २, २६, करने वाला है। १)। ३. सेढी सत्तरज्जुमेत्तायामो। (धव. पु. ३, श्रुतावर्णवाद - १, मांसभक्षणाद्यभिधानं श्रुतावर्ण पृ. ३३)। ४. अाकाशप्रदेशपंक्तिः श्रेणिः । (त. वादः। (स. सि. ६-१३) । २. मांसभक्षणाद्यनव 1. ६-१३) । २. मासभक्षणाद्यनवा इलो. २-२६)। ५.xxxसेढी वि पल्लच्छेदाणं । द्याभिधानं श्रुते । मांसस्य भक्षणं मधु-सुरापानं वेद- होदि असंखेज्जदिमप्पमाणविदंगुलाण हदी॥ (त्रि. नादितमैथुनोपसेवा-रात्रिभोजनमित्येवमाद्यनवद्यमि- सा.१-७)। ६. लोकस्य मध्यप्रदेशदारभ्य ऊर्ध्वात्यनुज्ञानं श्रुतेऽवर्णवादः। (त. वा. ६, १३, ६)। धस्तिर्यकव्योमप्रदेशानाम अनुक्रमेण संस्थितानामा३. पुरुषकृतत्वाद् दशदाडिमादिवाक्यवदयथार्थता, वलि: श्रेणिः। (त. वृत्ति श्रुत. २-२६)। नातीन्द्रियं वस्तु सो ज्ञानगोचरम्, अज्ञात चोपदि- लोक के मध्य से प्रारम्भ करके ऊपर, नीचे और शतो वः कथं सत्यम्, तदुद्गतं च ज्ञानं कथ समा- तिरळे रूप में क्रम से अवस्थित प्राकाशप्रदेशों की चीनमिति श्रुतावर्णवादः । (भ. प्रा. विजयो. ४७)। पंक्ति को श्रेणि कहते हैं। ३ श्रेणि (जगश्रेणि) ४. इदमाहतं श्रुतं पुरुषकृतत्वाद दशदाडिमादिवाक्य सात राजु प्रमाण प्रायत है। ५ पल्य के अर्द्धच्छेदों वदयथार्थम् । न ह्यङ्गाराजनादिवत्कालुष्योत्कर्षप्र के असंख्यातवें भाग प्रमाण घनांगलों को परस्पर वत्तस्य चित्तस्य कुतश्चिद्विशुद्धिरिति, सर्वे पुरुषाः गणित करने पर जो प्राप्त हो उतना प्रमाण श्रेणि सर्वदा रागादिदोषदूषिता अतएवातीन्द्रियं वस्तु न (जगणि ) का है। कश्चिज्जानाति, अज्ञातं चोपदिशतो न वचः सत्यम्, श्रेणीचारण- १. धूमग्गि-गिरि-तरु-तंतुसंताणेसु तदुदगतं च ज्ञानं मिथ्यवेत्यादिः श्रतस्य अवर्णवादः। (भ. प्रा. मूला. ४७)। उड्ढारोहणसत्तिसंजुत्ता सेडीचारणा णाम । (धव. २ मांस का खाना, शहद का उपयोग करना. मदा पु. ६, पृ. ८०)। २. चतुर्योजनशतोच्छितस्य निषका पीना, वेदना से पीड़ित होकर मैथुन का सेवन धस्य नीलस्य चारोष्टङ्कच्छिन्नां श्रेणिमुपादायोपर्यकरना और रात्रिभोजन; ये सब कार्य निर्दोष धो वा पाद[प्रक्षेप]पूर्वकमुत्तरणावतरणनिपूणा: श्रेणिशास्त्रसम्मत हैं; ऐसा कथन करना, यह श्रुत का चारणाः । (योगशा. स्वो. विव. १-६, पृ. ४१) । अवर्णवाद है । ३ श्रुत (पागम) शब्दात्मक है जो १ जो महर्षि धुप्रां, अग्नि, पर्वत, वृक्ष और तन्तु पुरुष के द्वारा किया गया है। जिस प्रकार वंचक (धागा) के समूहों पर ऊपर चढ़ने की शक्ति से संयुक्त पुरुष के द्वारा कहे जाने वाले 'वहां दस अनार हैं होते हैं वे श्रेणिचारण कहलाते हैं। २ चार सौ योजन इत्यादि वाक्य अयथार्थ होते हैं उसी प्रकार प्रती ऊंचे निषध पर्वत की टांकी से छेदी गई श्रेणी को न्द्रिय वस्तुओं के ज्ञान से रहित पुरुष के द्वारा उप- लेकर जो साधु उसके ऊपर और नीचे पादक्षेपपूर्वक दिष्ट प्रागमवचन भी सत्य नहीं हैं, जिसे वस्तु- चढ़ उतर सकते हैं वे श्रेणिचारण ऋद्धि के धारक स्वरूप का स्वयं ज्ञान नहीं है उसके द्वारा प्ररूपित होते हैं । तत्त्व कैसे यथार्थ हो सकता है, इस प्रकार से श्रुत श्रेय-श्रेयः सकलदुःख निवृत्तिः। (त. श्लो. का. की की जाने वाली निन्दा को श्रुतावर्णवाद कहा २४६, पृ. ५०)। जाता है। समस्त दुःखों की निवृत्ति का नाम श्रेय है।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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