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________________ वेदनासमुद्घात] १०२७, जैन-लक्षणावली [वैदिम १ वेध और वेदक के भेद से रहित जो स्वयं एक सेण कम्मपज्जयपरिणदो जीवसमवेदो वेदणीयमिदि निश्चल ज्ञान का वेदन किया जाता है यही एक भण्णदे । (षव. पु. ६, पृ. १०); जीवस्स सुह-दुक्खुवेवना है, अन्य बाह्य पदार्थों के सम्बन्ध से होने पाययं कम्मं वेयणीयं णाम । (धव. पु. १३, पृ. वाली दूसरी कोई वेदना नहीं है। फिर भला उसका २०८) । २. तथा वेद्यते पाल्हादिरूपेण यदनुभयते भय कहां से हो सकता है ? इस प्रकार निर्भय तद्वेदनीयम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २८८)। सम्यग्दृष्टि के वेदनाभय सम्भव नहीं है । २ मलों १ जो पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्व प्रादि कारणों के वश के प्रकोप से शरीर में जो रोगादिजनित वेदना कर्मपर्याय रूप से परिणत होकर जीव के लिये सुख. उत्पन्न होती है वह प्रागन्तुक है। उसके पहिले ही दुःख का कारण होता है उसे वेदनीय कहा जाता है। शरीर में कम्प होना, अथवा प्रज्ञानता से उसके २ जिसका प्राह्लादि (हर्ष प्रादि) के रूप से अनुलिए चिन्तातुर होता कि मैं कैसे नीरोग होऊंगा, भवन किया जाता है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। मुझे कहीं व्याधिजनित वेदना न हो; यही वेदना. वेदमूढता-पापोपदेशवेदान्यपुराणादिषु सन्मतिः । भय कहलाता है। स्याद्वेदमूढता जन्तोः संसृतिभ्रान्तिकारणम् ।। (माचा. वेदनासमुद्घात-१. तत्र वातिकादिरोग-विषादि- सा. ३-४८)। द्रव्यसम्बन्धसन्तापापादितवेदनाकृतो वेदनासमुद्घा- पापजनक उपदेश, वेद और अन्य पुराण प्रादि के तः। (त. वा. १, २०, १२, पृ. ७७) । २. वेदण- विषय में जो समीचीनता की बुद्धि होती है। इसे समुग्घादो णाम अविख-सिरोवेदणादीहिं जीवाण- वेदमूढता कहते हैं, वह जीव के संसार परिभ्रमण मुक्कस्सेण सरीरतिगुणविप्फुज्जणं । (धव. पु. ४, को कारण है। प. २६): वेदणावसेण ससरीरादो बाहिमेगपदेस- वेदिकाबद्धदोष--१. वेदिकाकारेण हस्ताभ्यां मादि कादण जावककस्सेण सरीरतिगुणविफुजणं बन्धो हस्तपंजरेण वाम-दक्षिणस्तनप्रदेश प्रपीडय वेयणसमुग्धादो णाम । (धव. पु. ७, पृ. २६६); जानुद्वयं वा प्रबद्ध्य वन्दनाकरणं वेदिकाबद्धदोपः। वेयणावसेण जीवपदेसाणं विखंभुस्सेहेहि तिगुणवि- (मूला. वृ. ७-१०७)। २. वेदिकाबद्धं जानुनोरुपरि फंजणं वेयणासमुग्धादो णाम । (धव. पु. ११, पृ. हस्ती निवेश्य अधो वा पार्श्वयोर्वा उत्संगे वा जान. १८) । ३. तीव्रवेदनानुभवान्मूलशरीरमत्यक्त्वा करद्वयान्तः कृत्वा वा इति पञ्चभिर्वेदिकाभिर्बद्ध प्रात्मप्रदेशानां बहिनिगमन मिति वेदनासमुद्घातः। युक्तं वन्दनम्। (योगशा. स्वो. विव.३-१३०)। (ब. द्रव्यसं. टी. १०)। ४. तीव्रवेदनानुभवात् मूल- ३. वेदिबद्ध स्तनोत्पोडो दोया वा जानुबन्धनम् । शरीरमत्यक्त्वा आत्मप्रदेशानां बहिर्गमनं सीतादि- (अन. प.८-१०२)। पीडितानां रामचन्द्रादीनां चेष्टाभिरिव वेदनासमद- १ वेदिका के प्राकार से दोनों हाथों से बायें। धातः दश्यते इति बेदनासमदधातः। (कातिके.टी. दाहिने स्तनप्रदेश को पीड़ित कर वन्दना करना १७६)। अथवा दोनों घुटनों को बांध कर वंदना करना, १ वातिक (वायजनित) प्रादि रोग तथा विष यह एक वन्दना का वेदिकाबद्ध दोष है। २ दोनों प्रादि द्रव्यों के सम्बन्ध से होने वाले सन्ताप के घुटनों के ऊपर, नीचे, दोनों पार्श्वभागों में प्रथवा कारण जो वेदना होती है व उसके प्राश्रय से शरीर उत्संग में दोनों हाथों को करके अथवा घटने को को न छोड़ते हुए प्रात्मप्रदेश बाहिर निकलते हैं, दोनों हाथों के मध्य में करके; पांच वेदिकानों से इसका नाम वेदनासमुद्घात है। २ प्रांख और युक्त जो वन्दना की जाती है वह वेदिकाबद्ध नामक सिर की वेदना प्रादि से जीवप्रदेशों के अधिक से दोष से दूषित होती है। अधिक शरीर से तिगुने फैल जाने को वेदनासमुद्- वेदिम–सुत्तिधुवकोसपल्लादिदव्वं वेदणकिरियाघात कहा जाता है। णिप्फण्णं वेदिमं णाम । (घव. पु. ६, पु. २७२, वेदनीय-देखो वेद्यकर्म। १. वेद्यत इति वेदनीयम्, २७३) । अथवा वेदयतीति वेदनीयम् । जीवस्स सुह-दुक्खाणु- वेदनक्रिया क्रिया से सिद्ध शुक्ति, इन्धुव, कोश पल्य हवणणिबंधणो पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तादिपच्चयव- प्रादि द्रव्य का नाम वेदिम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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