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________________ वाग्जीवी] ६६०. जैन-लक्षणावली [वाग्योग सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥ (योगशा. १-४२)। १प्रणिधान का अर्थ प्रयोग है। वर्णों के संस्कार का ८. XXX दुरुक्तित्यजनतनुमवाग्लक्षणां वोक्ति- न होना, अर्थ का अनवबोध तथा पाठ में चंचलता, गुप्तिम् । (अन. घ. ४-१५६)। ६. विपरीतार्थ- यह वाग्दुष्प्रणिधान नामक सामायिक का एक अनिप्रतिपत्तिहेतुत्वात्परदुःखोत्पत्तिनिमित्तत्वाच्चाधर्माद्या चार है। वाचो व्यावृत्तिः सा वाग्गुप्तिः, तथाविधवाक्प्रवत्ति- वाग्बली-देखो वचनबला ऋद्धि । १. मनोजिह्वानिमित्त वीर्यरूपेणापरणतिरात्मन इत्यर्थः । (भ. प्रा. श्रुतावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमातिशये सत्यन्तर्मुहूर्वे मूला. ११८७)। १०. असच्चणिवत्ती मोणं वा सकलश्रुतोच्चारणसमर्थाः सततमुच्चरुच्चारणे सत्यपि वाग्गुत्ती । (अंगप. ७८, पृ. २६२ गद्य)। श्रमविरहिताः अहीनकण्ठाश्च वाग्बलिनः । (त. वा. १ पाप को हेतुभूत स्त्रीकथा, राजकथा, चौर्यकथा ३, ३६, ३, पृ. २०३; चा. सा. पृ. १०१)। २. और भोजनकथा इत्यादि विकथानों के परित्याग अन्तर्मुहूर्तेन सकलश्रुतवस्तूच्चारणसमर्था वाग्बलिनः । को अथवा असत्य प्रादि वचनों के परित्याग को अथवा पद-वाक्यालङ्कारोपेतां वाचमुच्चरुच्चारयन्तोवचनगुप्ति कहते हैं। २ असत्य के त्याग करने ऽविरहितवाक्क्रमाहीनकण्ठा वाग्बलिनः । (योगशा. अथवा वचनों पर नियंत्रण रखने को बाग्गुप्ति कहा स्वो. विव. १-८) । । ७ संकेत मादि के छोड़ने के साथ जो १ मन व जिहा श्रतज्ञानावरण के क्षयोपशम के मौन का अवलम्बन लिया जाता है अथवा वचन की होने पर अन्तर्मुहूर्त में जो समस्त श्रुत के उच्चारण प्रवृत्ति पर नियन्त्रण रखा जाता है, इसका नाम करने में समर्थ होते हुए निरन्तर ऊंचे स्वर से बाग्गुप्ति है। उच्चारण करने पर भी परिश्रम से रहित व कण्ठ वाग्जीवी-वाग्जीवी वैतालिकः सूतो वा। (नी. से परिपूर्ण होते हैं उन्हें वाग्बल (वचनवल) तिवा. १४-२६, पृ. १७४) । ऋद्धि के धारक समझना चाहिए। वैतालिक (स्तुतिपाठक) अथवा सूत (सारथी) ये वाग्भव-असमीक्ष्याधिकरण-वाग्भवं निष्प्रयोवाग्जीवी-वचन के माधय से भाजीविका चलाने जनकथाव्याख्यानं परपीडाप्रधान यत्किचन वक्तृत्वं वाले हैं। च। (चा. सा. पु. १०)। वाग्दुष्प्रणिधान-१. दुष्ठु प्रणिधानमन्यथा वा निरर्थक कथा-वार्ता करना तथा दूसरों को पीड़ा दुष्प्रणिधानम् । प्रणिधानं प्रयोगः परिणामः इत्यना- पहुंचाने बाला कुछ भी भाषण करना, यह वाग्भव न्तरम् । दुष्ठु पापं प्रणिधानं दुष्प्रणिधानं अन्यथा वा (वाचिक) असमीक्ष्याधिकरण कहलाता है। यह प्रणिधानं दुष्प्रणिधानम् । xxx वर्णसंस्कारा- अनर्थदण्डव्रत के अतिचारों के अन्तर्गत है। भावार्थागमकत्व-चापलादिवागतम् दुष्प्रणिधानम्]। वाग्योग-१. शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्वर्गणा(त. वा. ७, ३३, २) । २. प्रणिधानं प्रयोगः, दुष्टं ___ लम्बने सति वीर्यान्तराय-मत्यक्षराद्यावरणक्षयोपप्रणिधानं दुष्प्रणिधानम्। Xxx वर्णसंस्कारा- शमापादिताभ्यन्तरवाग्लब्धिसान्निध्ये वाक्परिणामाभावार्थानवगम-चापल्यानि वाक्रिया वाग्दुष्प्रणि- भिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः । (स. सि. घानम् । (त. भा. सिद्ध. वृ.७-२८)। ३. वर्ण- ६-१; त. वा. ६, १, १०)। २. प्रौदारिक-वैक्रिसंस्कारे भावार्थ चागमकत्वं चापलादि वाग्दःप्रणि- याहारकशरीरव्यापाराहृतवान्द्रव्यसमूहसचिव्याज्जीधानम् । (चा. सा. पृ. ११)। ४. वर्णसंस्कारा- वव्यापारो वाग्योगः । (ध्यानश. हरि. वृ. ३, भावोऽर्थानवगमश्चापलं च बाग्दुष्प्रणिधानम् । स्थाना. अभय. वृ. १-२० व १-५१, योगशा. (योगशा. स्वो. विव. ३-११६)। ५. वर्णसंस्कारोद- स्वो. विव. ११-१०)। ३. वचसः समुत्पत्त्यर्थः भवो [-राभावोऽर्थानवगमश्चापलं च वाग्दुष्प्रणि- प्रयत्नो वाग्योगः । (धव. पु. १, पृ. २७९); चतुधानम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५-३३)। ६. वाग्यो- णां वचसा सामान्यं वचः, तज्जनितवीर्येणात्मप्रदेशगोऽपि ततोऽन्यत्र हुङ्कारादिप्रवर्तते। वचोदुष्प्रणि- परिस्पन्दलक्षणेन योगो वाग्योगः। (धव. पु. १, पृ. धानाख्यो दोषोऽतीचारसंज्ञकः । (लाटीसं. ६, ३०८); भासावग्गणपोग्गलक्खंचे अवलंबिय जो १६१)। जीवपदेसाणं संकोच-विकोचो सो वचिजोगो णाम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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