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________________ यथाछन्दमुनि ] ६४४, जैन-लक्षणावली [ यम प्रभावरूप श्राचरण है, परमागम में प्रतिपादित वह श्राचरण ( चारित्र) जिन शुद्धि युक्त संयतों के होता है उन्हें यथाख्यातविहार-शुद्धि-संयत कहा जाता है। यथाछन्दमुनि - - १. उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छावि कल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाछन्द इति । ( भ. प्रा. विजयो. १६४९ ) । २. यथाच्छन्दोऽभिप्राय इच्छा तथैवागमनिरपेक्षं यो वर्तते स यथाच्छन्दः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. पी. तृ. वि. १०७) । १ जो श्रागम में श्रनुपदिष्ट सूत्रविरुद्ध तत्त्व का अपनी मनगढन्त कल्पना के अनुसार निरूपण करता है उसे यथाछन्द कहा जाता है । २ छन्द का अर्थ अभिप्राय या इच्छा है, जो श्रागम की अपेक्षा न करके अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति किया जरता है उसे यथाछन्द कहते हैं । जिसके द्वारा यथावस्थित जीवादिपदार्थ खोजे जाते हैं उसका नाम यथानुमार्ग है। यह श्रुतज्ञान का नामान्तर है। 1 यथाप्रवृत्तकरण अनादिसंसिद्धिनैव प्रकारेण प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तम् । क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणम् यथाप्रवृत्तं च तत्करणं च यथाप्रवृत्तकरणम्, अनादिकालात् कर्मक्षपणाय प्रवृत्तो गिरिसरिदुपलघोलना [ न्यायेन ] कल्पोऽध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तकरणमिति । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १०६) । यथाप्रवृत्त का अर्थ 'अनादिसिद्ध प्रकार से प्रवृत्ति में प्राया' है तथा करण का अर्थ है कर्मक्षपण का प्रतिशयित कारण, अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार पर्वत की नदी में पड़े पाषाणों में से कुछ विना किसी प्रकार के प्रयोग के घर्षणवश स्वयमेव गोल हो जाते हैं उसी प्रकार अनादि काल से कर्मक्षपण यथाजात - यथाजातो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रह चिन्ता के लिए जो श्रध्यवसाय में प्रवृत्त हैं उसे यथाप्रवृत्तव्यावृत्तः । ( रत्नक. टी. ५-१८ ) । बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की चिन्ता से जो मुक्त हो चुका है उसे यथाजात - शिशु के समान निर्द्वन्द्व कहा जाता है । यथातथानुपूर्वी - जमणुलोभ-विलोमेहि विणा जहा तहा उच्चदि सा जत्थतत्थाणुपुव्वी । ( धव. पु. १, पृ. ७३ ) ; अणुलोभ - विलोमेहि विणा परूवणा जहातहाणुपुव्वी । ( धव. पु. ६, पृ. १३५) । अनुरूप व प्रतिरूप क्रम के विना जो प्ररूपणा की जाती है उसे यथातथानुपूर्वी कहते हैं । यथानुपूर्व - यथानुपूर्वी यथानुपरिपाटी इत्यनर्थान्तरम् । तत्र भवं श्रुतज्ञानं द्रव्यश्रुतं वा यथानुपूर्वम् । सर्वासु पुरुषव्यक्तिषु स्थितं श्रुतज्ञानं द्रव्यश्रुतं च यथानुपरिपाट्या सर्वकालमवस्थितमित्यर्थः । ( धव. पु.१३, पृ. २८९ ) । करण जानना चाहिए । यन्त्र - १. सीह-वग्धधरणट्टमोद्दिमन्भंत रकयछालियं जंतं णाम । (घव. पु. १३, पृ. ३४ ) । २. सिंह - व्याघ्रादिधारणार्थमभ्यन्तरीकृत छागादिजीवं काष्ठादिरचितं तत्पादनिक्षेपमात्रकवाटसंपुटीकरणदक्षसूत्र कीलितं यंत्रम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. ३०३) । १ सिंह व व्याघ्र प्रादि के पकड़ने के लिए जिसके भीतर बकरे को रखा जाता है उसे यंत्र कहा जाता है । यथानुपूर्वी और यथानुपरिपाटी ये समानार्थक शब्द हैं। यथानुपूर्वी में जो श्रुतज्ञान अथवा द्रव्यश्रुत होता है उसे यथानुपूर्व कहते हैं । अभिप्राय यह है कि सभी पुरुष व्यक्तियों में स्थित श्रुतज्ञान श्रीर द्रव्यश्रुत यथानुपरिपाटी से सर्वकाल अवस्थित रहता है। यथानुमार्ग- - यथा स्थिताः जीवादयः पदार्थाः तथा अनुमृग्यन्ते अन्विष्यन्ते प्रनेनेति यथानुमार्गः श्रुतज्ञानम् । (धव. पु. १३, पृ. २८६) । Jain Education International यन्त्रपीडाकर्म- १. तिलेक्षु सर्षपै रण्ड - जलयन्त्रादिपीडनम् । दलतैलस्य च कृतिर्यन्त्रपीडा प्रकीर्तिता ॥ (त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३४५; योगशा. ३ - १११ ) । २. यन्त्रपीडाकर्म तिलयंत्रादिपीडनम्, तिलादिकं च दत्त्वा तैलादिप्रतिग्रहणम् । तत्कर्मणश्च पीलनाय तिलादिक्षोदात्तद्गतत्रसघाताच्च दुष्टत्वम् । (सा. घ. स्वो टी. ५ - २१ ) । १ तिल, ईख, सरसों, एरण्डबीज और जल इनके यंत्र ( मशीन ) द्वारा पोलन करने तथा तेल निकालने के लिए तिलों के देने को यंत्रपीडाकर्म कहते हैं । यम - १. XXX यावज्जीवं यमो धियते । ( रत्नक. ३ - ४१ ) । २. यावज्जीवं यमो ज्ञेयः X X X ॥ उपासका ७६१; धर्मसं. आ. ७-१९ ) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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