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________________ भोगोपभोगसंख्यान] ८७२, जैन-लक्षणावली [भ्रूविकारदोष शिक्षाव्रतं बुधाः ॥ (पू. उपासका. ३३)। १३. (योगशा. ५-४३)। भोगोपभोगयोः संख्याविधानं यत्स्वशक्तितः । भोगो- पृथिवी बीज से परिपूर्ण, वज्र के चिह्न से संयुक्त, पभोगमानाख्यं तद् द्वितीयं गुणवतम् । (धर्मसं. मान. चौकोण और सुवर्ण जैसी कान्तिवाला भौम मण्डल २-३१)। होता है। १ प्रयोजन की सिद्धि के कारण होने पर भी राग. भ्रमराहार-१. दातजनबाघया बिना कुशलो मुनिजनित प्रासक्ति को कम करने के लिए जो उनकी भ्रमरवदाहरतीति भ्रमराहार इत्यपि परिभाष्यते । संख्या निश्चित कर ली जाती है उसे भोगोपभोग- (त. वा.. ६, १६, पृ. ५६७; त. श्लो. ६-६; चा. परिमाणवत कहते हैं। सा. पृ. ३६; कातिके. टी. ३६६, पृ. ३०२) । भोगोपभोगसंख्यान-देखो भोगोपभोगपरिमाण । २. भृङ्गः पुष्पासवं यद्वत् गृह्णात्येकगृहेऽशनम् । भौम निमित्त-१. घण-सुसिर-णिद्ध-लुक्खप्पहुदि- गृहिबाधां बिना तद्वद् भुञ्जीत भ्रमराशनः । (प्राचा. गुणे भाविदूण भूमीए । जं जाणइ खय-वड्ढि तम्मयस- सा. ५-१२७)। ३. भ्रमरस्येवाहारो भ्रमराहारो कणय रजदपमहाणं । दिसि-विदिस-अंतरेसं चउरंग दातृजनपुष्पपीडानवतारात् परिभाष्यते । (अन. घ. बलं ट्ठिदं च दट्टणं । जं जाणइ जयमजयं तं भउमणिमित्तमुद्दिढें ॥ (ति. प. ४, १००४-५)। १ जिस प्रकार भ्रमर फूलों को बाधा न पहुंचाकर २. भुवो घन-सुषिर-स्निग्ध-रूक्षादिविभावनेन पूर्वा- उनके रस को ग्रहण करता है उसी प्रकार कुशल दिदिक्सूत्रनिवासेन (चा. सा. 'सूत्रविन्यासेन') वा मुनि दाता जन को बाधा न पहुंचा कर जो उनके वृद्धि हानि-जय-पराजयादिविज्ञानं भूमेरन्तर्निहितसु- यहां पाहार को ग्रहण करता है, उसे भ्रमराहार वर्ण-रजतादिसंसूचनं (चा. सा. 'संस्तवनं') च कहा जाता है। भौमम् । (त. वा. ३, ३६, ३; चा. सा. पृ. १४)। भ्रान्ति-१. वस्तुन्यन्यत्र कुत्रापि तत्तुल्यस्यान्यवस्तु३. भमिगयलक्खणाणि दट्ठण गाम-णयर-खंड-कव्वड- नः। निश्चयो यत्र जायेत भ्रान्तिमान् स स्मृतो बुधैः ।। घर-पुरादीणं वुड्ढि-हाणिपदुप्पायणं भोम्म णाम महा (वाग्भटा. ४-७३) । २. भ्रान्तिः अतस्मिस्तद्ग्रहणिमित्तं । (धव. पु. ६, पृ. ७३)। ४. यं भूमिवि ' रूपा शुक्तिकायां रजताध्यारोपवत् । (षोडश. व. भागं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य शुभाशुभं ज्ञायते तद्भौम १४-३)। ३. सदृशदर्शनाद्विपर्ययज्ञानं भ्रान्तिः । निमित्तं न म। (मूला. वृ. ६-३०) । ५. भौमं (काव्यानु. ६, पृ. २८४)। भूमिविकार-फलाभिधानप्रधानं निमितशास्त्रम् । किसी वस्त में उसके समान जो अन्य वस्तु का (समवा. अभय. वृ. २६)। बोष होता है उसे भ्रान्ति कहा जाता है। २ जो १ भूमि की सान्द्रता, पोलापन, चिक्कणता और वह नहीं है, उसमें जो उसका ज्ञान होता रूखेपन आदि गुणों को देखकर जो तांबा, लोहा, है उसे भ्रान्ति कहते हैं। जैसे-जो (सीप) चांदी सुवर्ण और चांदी प्रादि धातुओं की हानि-वृद्धि का नहीं है उसमें चांदी का ज्ञान । ज्ञान होता है उसे भीमनिमित्त कहते हैं। तथा भ्रदोष-- व्यापारन्तरनिरूपणार्थं भ्रूनृत्तं कुर्वतः दिशा, विदिशा और अन्तराल में स्थित चतुरंग सेना को देखकर जय-परायज को जान लेना, यह स्थानं भ्रूदोषः (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। भी भौम निमित्त कहलाता है। ३ भमिगत लक्षणों अन्य व्यापार के कहने के लिए भृकुटियों को नचाते (चिह्नों) को देखकर ग्राम, नगर, खेट, कर्वट, घर हुए स्थित होना, यह एक कायोत्सर्ग का सूंदोष है। और नगर आदि की वृद्धि-हानि का कथन करन भ्रविकारदोष-देखो भ्रूदोष । १ तथा भ्रूविकारः इसका नाम भौम महानिनिमित्त है । ५ प्रधनता से -कायोत्सर्गेण स्थितो यो भ्रूविक्षेपं करोति तस्य जिसमें भूमिविकार के फल का कथन किया जाता भ्रूविकारदोषः पादाङ्गुलिनर्तनं वा। (मूला. वृ. है उसे भौम निमित्तशास्त्र कहते हैं। ७-१६२) । २. भ्रूक्षेपो भ्रूविकारः स्यात् Xxx भौम मण्डल-पृथिवीबीजसम्पूर्ण वज्रलाञ्छन- (अन. ध. ८-११६) । संयुतम् । चतुरस्रं हृतस्वर्णप्रभं स्याद्भौममण्डलम् । १जो कायोत्सर्ग से स्थित होता हुमा कुटियों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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