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________________ केवलदर्शनावरणीय] [ केवलिसमुद्घात समस्त मूर्त-अमूर्त द्रव्यों को सामान्य से जानता है वह केवलदर्शन कहलाता है । केवलदर्शनावरणीय - १. केवलमसपत्नम्, केवलं च दद्दर्शनं च केवलदर्शनम् । तस्स श्रावरणं केवलदर्शनावरणीयम् । ( धव. पु. ६, पृ. ३३ ) ; तस्स (केवलदंसणस्स) आवारयं (कम्मं ) केवलदंसणावर णीयम् । ( धव. पु. १३, पृ. ३५६ ) । २. केवलमासन्नं जं वरेइ तं केवलस्स भवे । (कर्मवि. ग. २६) । १ जो केवलदर्शन को प्राच्छादित करता है उसे केवलदर्शनावरणीय कहते हैं । केवलव्यतिरेकी— पक्षवृत्तिर्विपक्षव्यावृत्तः सपक्षरहितो हेतुः केवलव्यतिरेकी । ( न्यायदी. पृ. ६० ) । जो हेतु विपक्ष से व्यावृत्त होकर सपक्ष से रहित होता हुआ केवल पक्ष में रहता है उसे केवलव्यतिरेकी कहते हैं । दोनों में एक दूसरे की श्रावारकता ठहरती है । कारण कि उनके ज्ञानावरण श्रौर दर्शनावरण दोनों ही कर्म विनष्ट हो चुके हैं तथा अन्य कोई आवारक सम्भव नहीं है । तब यदि उन दोनों का युगपत् होना माना जाय तो उन दोनों के एक काल में रहने से श्रभेद का प्रसंग प्राप्त होता है - समान काल में रहने से केवलज्ञान और केवलदर्शन में कोई भेद नहीं रहेगा । इस प्रकार के कुतर्कपूर्ण विचार का नाम केवलि - श्रवर्णवाद है । ३ केवली जीवन के लिए कबलाहार का उपभोग करते हैं, कम्बल व तूंबड़ी के पात्रों को ग्रहण करते हैं, तथा उनके ज्ञान और दर्शन भिन्न काल में होते हैं; इत्यादि कथन करना केवलि- श्रवर्णवाद है । केवलिमरर - केवलिणं मरणं केवलिमरणम् । ( उत्तरा. चू. पृ. १२९ ) । केवलान्वयी - पक्ष सपक्षवृत्तिर्विपक्षवृत्तिरहितः केव केवली के मरण को निर्वाण प्राप्ति को - केवलि - लान्वयी । ( न्यायदी. पू. ८8 ) । जो हेतु पक्ष प्रौर सपक्ष में तो रहता है, किन्तु विपक्ष में नहीं रहता है उसे केवलान्वयी कहते हैं । केवलावररण- देखो केवलज्ञानावरण । केवलावरणं हि श्रादित्यकल्पस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति । (स्थानां. श्रभय. वृ. २, ४, १०५) । जो सूर्य के समान जीव को सघन मेघसमूह के समान श्राच्छादित करता है उसे केवलावरण कहा जाता है । केवलि - प्रवर्णवाद - १. कवलाभ्यवहारजीविन: केवलिन इत्येवमादिवचनं केवलिनामवर्णवाद: । ( स. सि. ६-१३ ) । २. एगंतरमुप्पाए अन्नोन्नावरणया दुवेह पि । केवल दंसण णाणाणमेगकाले व एगत्तं ॥ (बृहत्क. १३०४) । ३. पिण्डाभ्यवहारजीवनादिवचनं केवलिषु । पिण्डाभ्यवहारजीविनः कम्बल - दशानिर्हरणाः अलाबूपात्रपरिग्रहाः कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनाः केवलिन इत्यादिवचनं केवलिष्ववर्णवादः । (त. वा. ६, १३, ८) । २ केवली के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग क्रम से होते हैं या युगपत् ? यदि क्रम से होते हैं तो जिस समय को जानता है उसका दर्शन नहीं हो सकता है और जिसको देखता है उसका ज्ञान नहीं हो सकता है। इस प्रकार दोनों की उत्पत्ति के एकान्तरित होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन Jain Education International ३७२, जैन-लक्षणावली मरण कहते हैं । केवल मायी- - १. केवलिणं केवलिष्वादरवानिव यो वर्तते, तदर्चनायां तु मनसा तु न रोचते, स केवलिनां मायाबान् । (भ. प्रा. विजयो. १८१) । २. तथा केवलिष्वादरवानिव यो वर्तते, तत्पूजायां मनसा तु न तां रोचते, असो केवलिमायी । (भ. ना. मूला. १८१) । athaलियों के विषय में श्रादरयुक्त के समान रहता है, किन्तु मनसे जिसे उनकी पूजा नहीं रुचती है, वह केवलि मायी कहलाता है। ऐसा जीव केवली का प्रवर्णवादी होकर किल्विषिकभावना वाला होता है । केवलिसमुद्घात - १. वेदनीयस्य बहुत्वादल्पत्वाच्चायुषोऽनाभोगपूर्वकमायुः सम करणार्थं द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेन वेगबुद्बुदा विर्भावोपशमनवद्द ेहस्थात्मप्रदेशानां वहिःसमुद्घातनं केवलिसमुद्घातः । (त. वा. १, २०, १२) । २. केवलिसमुद्घादो णाम दंड-कवाड पदर लोग पूरणभेएण चउव्विहो । ( धव. पु. ४, पृ. २८); दंड-कवाड पदरलोग पूरणाणि केवलिसमुद्घादो णाम । ( धव. पु. ७, पू. ३०० ) । ३. उद्गमनमुद्घातः, जीवप्रदेशानां विसर्पणमित्यर्थः, समीचीनः उद्घातः समुद्घातः, केवलिनां समुद्घातः केवलिसमुद्घातः । अघातिकर्म स्थिति समीकरणार्थं केवलिजीवप्रदेशानां समया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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