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________________ कालापेक्षाव्यतिक्रम] ३५२, जैन-लक्षणावली [कालसंयोग ख्यान किया जाता है उस काल को कालविमोक्ष १६६) । २. कालदो समवानो-समयो समएण, कहते हैं। मुहत्तो मुहत्तेण समो। (धव. पु. १, पृ. १०१) । कालापेक्षाव्यतिक्रम-कालापेक्षाव्यतिक्रमः काला- ३. समयावलिय-खण लव-मुहत्त-दिवस-पक्ख-मासउडुपेक्षया कायोत्सर्गस्य विविधमंशभंजनम् । (अन. ध. अयण-संवच्छर युग-पुव-पव्व-पल्ल-सागरोसप्पिणिस्वो. टी. ८-१२१)। उस्स प्पिणीप्रो सरिसायो, एसो कालसमवायो । काल की अपेक्षा कायोत्सर्ग के विविध अंशों की (जयप. पु. १, पृ. १२५)। ४. एकसमयः एकसमविराधना करना, यह कालापेक्षाव्यतिक्रम नाम का येन सदृशः, प्रावलिः पावल्या सदृशी, प्रथमपृथ्वी३२ दोषों में २६वां दोष है। नारक-भावन व्यन्त राणां जघन्यायूंषि सदृशानि । कालव्यतिरेक-अपि चैकस्मिन् समये यकाप्यवस्था सप्तमपृथ्वीनारक-सर्वार्थसिद्धिदेवानामुत्कृष्टायुषी सभवेन्न साऽप्यन्या । भवति च सापि तदन्या द्वितीय- दृशे इत्यादिः कालसमवायः। (गो. जी. मं. प्र. व समयेऽपि कालव्यतिरेकः ॥ (पंचाध्यायी १-१४६)। जी. प्र. टी. ३५६)। एक समय में जो भी अवस्था होती है वह वही है, २ काल की अपेक्षा समय समय के साथ समान है, दूसरी नहीं हो सकती। और वही दूसरे समय में प्रावली प्रावली के साथ समान है; इत्यादि काल अन्य होती है-पहली नहीं हो सकती; यही काल- की समानता को कालसमवाय कहते हैं। व्यतिरेक है। कालसमाधि-कालसमाधिरपि यस्य यं कालमकालशुद्धदान-कालं शुद्धं तु यत्किचित्काले वाप्य समाधिरुत्पद्यते, यस्य वा यावन्तं कालं समापात्राय दीयते । (त्रि. श. पु. च. १, १, १८४)। धिर्भवति, यस्मिन् वा काले समाधिाख्यायते स दान देने के लिए जो समय निश्चित है, ठीक पागम कालप्राधान्यात् कालसमाधिरिति । (सूत्रकृ. शी. व. निरूपित उसी समय पर पात्र के लिए शुद्ध देय १०, १, ४)। वस्तु का दान करने को कालशुद्धदान कहते हैं। जिसके जिस काल में समाधि उत्पन्न होती है, अथवा कालशुद्धि-१. दिसदाह उक्कपडणं विज्जुचडुक्का- जितने काल तक समाधि रहती है, अथवा जिस सणिदधणुगं च । दुग्गंध-संज्झ-दुद्दिण-चंदग्गह-सुर- काल में समाधि का व्याख्यान किया जाता है; उस राहुजुझं च ॥ कलहादिधमकेदू धरणीकंपं च काल को काल की प्रधानता से कालसमाधि कहते हैं। अब्भगज्जं च । इच्चेवमाइ बहया सज्झाए वज्जिदा कालसंक्रम-कालस्स अपुव्वस्स पादुब्भायो कालदोसा ॥ (मूला. ५, ७७-७८) । २. विद्युदिन्द्रधनु- संकमो। Xxx अथवा xxx एगकालम्मि ग्रहोपरागाकालवृष्टयभ्रगर्जन-जीमूतव्रातप्रच्छाद-दिग- टिददव्बस्स कालंतरगमणं कालसंकमो। (धव. पु. दाह-धूमिकापात-संन्यास-महोपवास - नन्दीश्वरजिन- १६, पृ. ३४०)। महिमाद्यभाव: कालशुद्धि: । (धव. पु. ६, पृ. २५३)। अपूर्व काल की उत्पत्ति को कालप्रादुर्भाव कहा जाता ३. उदयास्तात्प्राक्-पाश्चात्य-त्रि-त्रिनाडीषु यः सुधीः। है। अथवा एक काल में स्थित द्रव्य का अन्य काल मध्याह्न तां च यः कुर्यात् कालशुद्धिश्च तस्य सा॥ को प्राप्त होना, इसका नाम कालसंक्रम है। (धर्मसं. श्रा. ७-४६)। कालसंयोग-१. से किं तं कालसंजोगे ? सूस२ स्वाध्याय के समय में बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्य मसुसमाए सुसमाए सुसमदूसमाए दूसमसुसमाए दूसचन्द्र का ग्रहण, अकालवृष्टि, मेघगर्जन, मेघसमूह माए दूसमदूममाए, अहवा पावसए वासारत्तए सरका आच्छादन (दुदिन), दिशादाह, धूमिकापात दए हेमंतए वसंतए गिम्हए, से तं कालसंजोगे। (कुहरा), संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर (अष्टा- (अनयो. सू. १३, पृ. १४४)। २. कालसंयोगपदानि ह्निकपर्व) और जिनमहिमा प्रादि के अभाव का यथा शारदः वासन्तक इत्यादीनि । (धव. पु. १, पृ. नाम कालशुद्धि है। ७८); सारो वासंतसो त्ति कालसंजोगपदणामाणि । कालसमवाय- १. उत्सपिण्यवसपिण्योस्तुल्यदश- (धव. पु. ६, पृ. १३७) । सागरोपमकोटाकोटीप्रमाणात्कालसमवायनात काल- १. सुषमसुषमादि छह कालों के सम्बन्धसे तथा वर्षा समवायः । (त. वा. १, २०, १२; धव. पु. ६, पृ. प्रादि ऋतुओं के सम्बन्ध से जो नाम (पद) निष्पन्न कापस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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