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________________ कालयुति ] कालवाद - १. कालो सव्वं जणयदि कालो सव्वं विणस्सदे भूदं । जागत्ति हि सुत्तेसु वि ण सक्कदे चिदु कालो ।। ( गो . क. ८७९ ) । २. सव्वं कालो जणयदि भूदं सव्वं विणासदे कालो । जागत्ति हि सुत्ते विण सक्कदेवंचिदु कालो || ( अंगपण्णत्ती २ - १६, पृ. २७७ ) 1 कालयुति ( कालजुडी ) - तेसि चेव जीवादीणं दव्वाणं दिवस मास-संवच्छ रादिकालेहिं सह मेलणं कालजुडी णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३४६ ) 1 जीवादिक द्रव्यों के दिन, मास और वर्ष श्रादि काल के साथ संमेलन को कालयुति कहा जाता है । काललब्धि - १. तत्र काललब्धिस्तावत् - कर्माविष्ट आत्मा भव्यः काले पुद्गल परिवर्तनाख्येSवशिष्टे प्रथम सम्यक्त्वग्रहणयोग्यो भवति, नाधिके, इतीयमेका काललब्धिः । अपरा कर्मस्थितिकाललब्धिः - उत्कृष्ट स्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तहि भवति ? अन्तः कोटाकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामन्तः कोटाकोटीसाग रोपमस्थित स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति । अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया । भव्यः पंचेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । ( स. सि. २-३; त. वा. २, ३, २) । २. भव्यः कर्माविष्टोऽर्घ पुद्गल परिवर्तनपरिमाणकाले ऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवतीति काललब्धि: । (पंचसं श्रमित. १ - २८६ ; अन. ध. स्वो. टी. २-४६) । १ कर्माक्रान्त भव्य जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र काल के शेष रह जाने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने योग्य होता है, इससे अधिक काल के शेष रहने पर वह उसके योग्य नहीं होता है। यह एक कालब्धि हुई । दूसरी काललब्धि कर्मस्थिति को अपेक्षा है— कर्मों के उत्कृष्ट स्थितियुक्त और जघन्य स्थितियुक्त बन्ध को प्राप्त होने पर उस प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु श्रन्तः कोटाकोटी मात्र स्थिति के साथ उनके बन्ध को प्राप्त होने पर तथा विशुद्ध परिणामों के वश उनके सत्त्व को उससे संख्यात हजार सागरोपम से हीन श्रन्तःकोटाकोटी प्रमाण स्थिति में स्थापित करने पर उक्त सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। तीसरी काललब्धि भव की अपेक्षा है—भव्य, पंचेन्द्रिय, संज्ञी श्रौर पर्याप्त सर्वविशुद्ध जीव ही उस सम्यक्त्व को उत्पन्न कर सकता है । १ काल (समय) ही सबको उत्पन्न करता है और काल ही सबका विनाश करता वह सोते हुए प्राणियों के भीतर भी जागता रहता है, उसे कोई धोखा नहीं दे सकता; इस प्रकार काल को महत्त्व देकर कथन करने को कालवाद कहते हैं । कालविप्रकृष्ट- १. अन्तरिताः कालविप्रकृष्टाः । XXX कालविप्रकृष्टा लाभालाभ - सुखदुःख-ग्रहोपरागादयः । (श्रा. मी. वृ. ५) । २ : कालविप्रकृष्टा रामादय: । ( न्यायदी. पृ. ४१) । १ जिनमें काल का व्यवधान हो ऐसे लाभ-श्रलाभ, सुख-दुःख और सूर्य-चन्द्रमादि के ग्रहण श्रादि को कालविप्रकृष्ट कहते हैं कालविमोक्ष - कालविमोक्षस्तु चैत्यमहिमादिकेषु कालेष्वनाघातादिघोषणापादितो यावन्तं कालं मुच्यते, यस्मिन् वा काले व्याख्यायते सोऽभिधीयते इति । ( श्राचारां. नि. शी. वृ. १, ७, ४, २५८, पृ. २३६) । जिन चैत्यमहिमादि पर्वों के समय श्रनाघात की (किसी भी जीव को नहीं मारने की ) घोषणा जितने काल काललोक -- काललोकः समयावलिकादिः । ( स्थानां. के लिए की जाती है, उतने काल तक जीवों को अभय. वृ. १-५, पृ. १३) । धादि से मुक्ति मिलने के कारण उसे कालविमोक्ष कहते हैं । अथवा जिस काल में विमोक्षण का व्या समय-श्रावली आदि काल को काललोक कहते हैं । Jain Education International ३५१, जैन-लक्षणावलो [कालविमोक्ष कालवर्गरणा - १. इह वर्गणाः सामान्यतश्चतुर्विधा भवन्ति । तद्यथा - X X X कालतः एकसमयस्थितीनां यावदसंख्येयसमयस्थितीनाम् । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ३६, पृ. ३४) । २. कम्मदव्वं पडुच्च समयाहियावलियापहूडि जाव कम्मद्विदित्ति णोकम्मदव्वं पडुच्च एगसमयादि जाव असंखेज्जा लोगात्ति ताव एदाय कालवग्गणाम्रो । ( धव. पु. १४, पू. ५२) । २ कर्मद्रव्य की अपेक्षा एक समय अधिक श्रावली से लेकर कर्मस्थिति तक तथा नोकर्मद्रव्य की अपेक्षा एक समय से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण काल तक ये सब कालवर्गणायें हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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