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________________ परितापनिकी] परितापनिकी— परितापनं परितापः, पीडाकरणमित्यर्थः, तस्मिन् भवा तेन वा निर्वृत्ता, परितापनमेव वा परितापनिकी । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २७६, पृ. ४३५ ) ; परितापनिकी नाम खड्गादिघातेन पीडाकरणम् । ( प्रज्ञाप. मलय वृ. २८१, पृ. ४४०) । खड्ग श्रादि के घातसे दूसरों के लिए पीडा पहुंचाना, यह परितापनिकी क्रिया कहलाती है । परित्यजन दोष- देखो छोटितदोष । १. बहुपरि erson आहारो परिगलंत दिज्जंतं । छंडिय भुंज्ञणमहवा छंडियदोषो हवे णेो ॥ ( मूला. ६, ५६) । २. छोडिदं परित्यजनं भुंजानस्यास्थिरपाणिपात्रेणाहारस्य परिशतनं गलनं परित्यजनं यत्क्रियते तत्परित्यजननामाशनदोष: । (मूला. वृ. ६-४३ ) । १ बहुत अन्न गिराकर भोजन करना, अथवा देते गिरते हुए को छोड़कर भोजन करना; यह परित्यजन नाम का दोष माना जाता है । इसे छोटित और व्यक्त दोष भी कहा जाता है । परिदेवन - १. संक्लेशपरिणामावलम्बनं गुणस्मरणानुकीर्तनपूर्वकं स्व-परानुग्रहाभिलाषविषयमनुकम्पा - प्रचुरं रोदनं परिदेवनम् । ( स. सि. ६ - ११ ) । २. संक्लेशप्रवणं स्वपरानुग्रहाभिलाषविषय मनुकम्पा - प्रायं परिदेवनम् । संक्लेशपरिणामालम्बनं स्व-परानुग्रहविषयम् अनुकम्पाप्रचुरं परिदेवनमिति परिभाष्य ६८१, जैन - लक्षणावली (त. वा. ६, ११, ६) । ३. परिदेवनं मुहुर्मुहुर्नष्टचित्ततयैव समन्ताद्विलपनम् । ( त. भा. हरि. बृ. ६- १३) । ४. संक्लेश []वणं स्व-परानुग्रहणं हा ना - थेत्यनुकम्पाप्रायं परिदेवनम्, तच्चासद्वे द्योदये मोहोदये च सति बोद्धव्यम् । ( त श्लो. ६-११) । ५. संक्लेशप्रवणः स्व-परानुग्रहनाथनमनुकम्पाप्रायं परिदेवनम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१३) | ६. परिदेव्यते परिदेवनं संक्लेशपरिणाम विहितावलम्बनं स्त्र-परोपकारकांक्षालिंगं अनुकम्पाभूयिष्ठं रोदनमित्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-११) । १ संक्लेश परिणाम के श्राश्रय से अपने व दूसरे के अनुग्रह से सम्बद्ध जो गुणों का स्मरण करते हुए रुदन किया जाता है, जिसे देखकर सुनने वाले का चित्त दयार्द्र हो उठता है, उसे परिदेवन कहते हैं । परिधि - १. समवट्टवासवग्गे दहगुणिदे करणिपरिल. ८६ Jain Education International [परिनिर्वृति (परं निर्वाण ) होदि । ( ति प १ - ११७ ) । २. विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिट्ठ [र] प्रो होदि । ( धव. पु. ४, पृ. २०६ उद्; त्रि. सा. ९६ ) ; व्यासं षोडशगुणितं षोडशसहितं त्रि-रूप-रूपैर्भक्तम् । व्यासत्रिगुणितसहितं सूक्ष्मादपि तद् भवेत् सूक्ष्मम् ॥ ( धव. पु. ४, पृ. ४२ उद्.) । ३. वासो तिगुणो परिही Xxx । (त्रि. सा. १७ ) । १ समान गोल क्षेत्र के विस्तार का वर्ग करके उसे दस से गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकालने पर परिधि का प्रमाण प्राप्त होता है । २ विस्तार को सोलह से गुणा करके उसमें सोलह जोड़ दे, तत्पश्चात् उने तीन, एक और एक ( ११३ ) अर्थात् एक सौ तेरह से भाजित करके लब्ध में तिगुने विस्तार के जोड़ देने पर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परिधि का प्रमाण प्राप्त होता है । परिनिर्वाण्यवाचना - परीति सर्वप्रकारं निर्वाप यतो निरो निर्दग्धादिषु भृशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गमयतः --- पूर्वदत्तालापकादि सर्वात्मना स्वात्मनि परिणमयतः शिष्यस्य सूत्रगताशेषविशेषग्रहणकालं प्रतीक्ष्य शक्त्यनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्य वाचना— सूत्रप्रदानं परिनिर्वाप्यवाचना । ( उत्तरा. नि. शा. वृ. ५८, पृ. ३६ ) । पूर्व में प्रदान किये गये श्रालाप श्रादि को जो सब प्रकार से अपने में परिणत कर रहा है—उसे पूर्णतथा हृदयंगम करता है—ऐसे शिष्य को सूत्रगत समस्त विशेषताओं के ग्रहण योग्य काल की प्रतीक्षा परिनिर्वाण्यवाचना कहा जाता है । करके शक्ति के अनुरूप सूत्र के प्रदान करने को परिनिर्वृत — परिनिर्वृतः कर्मकृतविकारविरहात् स्वस्थीभूतः । ( स्थाना. अभय वृ. १ - ५३ ) । कर्मकृत रागादि विकारों (दोषों) को दूर कर जो सर्वथा स्वस्थ हो चुका है— केवलज्ञानादिरूप श्रात्मस्वरूप में स्थित होता हुआ सिद्धि को प्राप्त कर चुका है वह परिनिर्वृत (सिद्ध) कहलाता है । परिनिर्वृति ( परं निर्वाण ) - भवबन्धनमुक्तस्य या ऽवस्था परमात्मनः । परिनिर्वृतिरिष्टा सा परं निर्वाणमिष्यते ॥ ( म. पु. ३६ - २०६ ) । संसाररूप बन्धन से मुक्त हुए जीव की जो उत्कृष्ट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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