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________________ परिणाम] ६८०, जैन-लक्षणावली [परितापन १४. परिणामः कारणस्यान्यथाभावः वाग्गोचरा- प्रकार से-उत्सर्ग-अपवाद के अनुसार--- जो श्रद्धान तीतः । (प्रा. मी. वसु. ३.७१)। १५. परि समन्ता- करता है उसे परिणामक साथ जानना चाहिए। नमनं यथावस्थितवस्त्वनुसारितया गमनं परि- परिणामतः आत्त पुदगल-मिच्छत्तादिपरिणामेणामः । (प्राव. नि. मलप. वृ. ६३८, पृ. ५१६); हि जे अप्पणो कदा ते परिणामदो अत्ता पोग्गला । परिणमनं परिणामः--पाथञ्चित् पुर्वरूपापरित्यागे- (धव. पृ. १६, प. ५१५) । नोत्तररूपापत्तिः । उक्तं च-नार्थान्तरगमो यस्मात् मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा जो पुदगल अपने सर्वथैव न चागमः । परिणामः प्रमासिद्धः इष्टश्च किये गये हैं जिन्हें ग्रहण किया गया है-वे परिखलु पण्डितैः ।। (प्राव. नि. मलय. वृ. १०४०, पृ. णामतः प्रात्त पुद्गल कहलाते हैं। ५७६); द्रव्यपरिणतिस्वभावः सर्वः परिणामः । परिणामयोगस्थान-१. पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि (प्राव. भा. मलय. वृ. १८६, पृ. ५७८) । १६. परि उवरि सव्वत्थ परिणामजोगो चेव । (धव. पु. १०, णमनं परिणाम:, कथञ्चिदवस्थितस्य वस्तुनः पूर्वा पु. ४२१)। २. परिणामजोगठाणा सरीरपज्जवस्थापरित्यागेनोत्तरावस्थागमनम्। (पञ्चसं. मलय. त्तगा दु चरिमो त्ति । (गो. क. २२०)। वृ. २-३, पृ. ४५)। १७. परिणामः स्वकार्यपर्या १ पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर पागे सर्वत्र लोचनम् । (अन. ध. स्वो. टी. ८-९८% भ. प्रा. परिणामयोग ही हुआ करता है । मला. ६५) । १८. परिणामो द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन परिस्पन्देतरप्रयोगजपर्यायस्वभावः परिणामः । परिणामविशुद्धप्रत्याख्यान-१. रागेण व दोसेण व सगपरिणामेण दूसिदं जंतु । तं पुण पच्चक्खाणं (षड्द. स. वृ. ४६, पृ. १६४) । १६. द्रव्याणां या परिणतिः प्रयोग-विस्रसादिजा । नवत्व-जीर्णताद्या च भावविशुद्धं तु णादव्वं ॥ (मूला. ७-१४६) । परिणामः स कीर्तितः ।। (लोकप्र. २८-८)। २०. २. रागपरिणामेन द्वेषपरिणामेन च न दूषितं न द्रव्यस्य स्वभावान्तरनिवत्तिः स्वभावान्तरोत्पत्तिश्च प्रतिहत विपरिणामेन यत्प्रत्याख्यानं तत्पुनः प्रत्याअपरिस्पन्दात्मकः पर्यायः परिणामः । (त. वृत्ति ख्यानं भावविशुद्धं तु ज्ञातव्यं । सम्यग्दर्शनादियुक्तस्य निःकांक्षस्य वीतरागस्य समभाव युक्तस्याहिंसादिव्रतश्रुत. ५-२२) । २१. परिणामस्तु सत एव प्रदेशपरिणामादिनाऽन्यथाभावः । (प्रष्टस. यशो. सहितशुद्धभावस्य प्रत्याख्यानं परिणामशुद्धं भवेदिति । वृ. पृ. १५७)। (मूला. वृ.७-१४६)। २ जिसका कारण द्रव्य का प्रात्पलाभ मात्र है उसे जो प्रत्याख्यान राग और द्वेषरूप चित्तवृत्ति से परिणाम कहते हैं। धर्म प्रादि द्रव्य जिस स्वरूप दूषित न हो उसे भावविशुद्ध या परिणामविशुद्ध प्रत्याख्यान जानना चाहिए। से हैं उसका नाम तद्भाव है, यही तद्भाव परिणाम का लक्षण है । ३ धर्म आदि द्रव्यों और गणों का परिणामानित्यता-तत्र परिणामानित्यता नाम जो स्वभाव या निज तत्त्व है उसे परिणाम कहा मृत्पिण्डो हि विस्रसा-प्रयोगाभ्यामनुरूनयमवस्थान्तरं जाता है। ५ अध्यवसाविशेष का नाम परिणाम प्रागवस्थाप्रच्युत्या समश्नुते । (त. भा. सिद्ध. बृ. है। १७ अपने कार्य का जो पर्यालोचन किया जाता ५-४)। है उसे परिणाम जानना चाहिए (यह भक्तप्रत्या- स्वभाव अथवा प्रयोग के वश मिट्टी का पिण्ड जो ख्यान मरण को स्वीकार करनेवासे क्षपक के प्रत्येक समय में पूर्व पूर्व अवस्था को छोड़कर अन्य अर्हादि लिगों में से एक है)। अन्य अवस्था को प्राप्त होता है, यही परिणामपरिणामक साधु-जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावो अनित्यता है। जं जहा जिणक्खायं । तं तह सद्दहमाणं जाणसु परि- परितापन-१. संतावजणणं परिदावणं णाम । णामयं साधु ॥ (बृहत्क. ७६३)। (धव. पु. १३, पृ. ४६) । २. प्राणिनः सन्तापकरणं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जिनेन्द्र देव परितापनं व्याहियते। (भावप्रा. टी. ६६)। के द्वारा साधु के लिये जो कल्प्य-प्रकल्प्य (योग्य- १ प्राणि के लिए सन्ताप पहुंचाने का नाम परिअयोग्य) का कथन किया गया है उसका या उसी तापन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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