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________________ नोकमंद्रव्यसैमा] ६५२, जैन-लक्षणावली [नोसंज्ञाकरणं अनन्त वार प्रगृहीत पुद्गलों का, अनन्त वार मिश्र नोकृति-एगो वग्गिज्जमाणो ण वड्ढदि, मूले अवपुद्गलों का, मध्य में अनन्त वार गृहीत पुद्गलों णिदे णिम्मूलं फिट्टदि, तण एगो णोकदित्ति वुत्तं । का अतिक्रमण कर–उनको ग्रहण करते हुए (धव. पु. ६, पृ. २७४)। निजीर्ण करके-जब वे ही पूर्वोक्त पुद्गल उसी एक (१) अंक का वर्ग करने पर वह वृद्धि को प्रकार से उक्त जीव के नोकर्मरूपता को प्राप्त होते प्राप्त नहीं होता तथा उसे वर्गमूल में से घटाने पर हैं, उतने समदित काल का नाम नोकर्मद्रव्यपरि- वह निर्मूल नष्ट हो जाता है, इसी से उसे कृति न वर्तन है। कहकर नोकृति कहा जाता है। नोकर्मद्रव्यसमता-नोकर्म मृत्सूवर्णाश्ममाणिक्या नोगौरण-देखो नोगोण्य । से किं तं नोगुण्णे ? अकुंतो ऽहिस्रगादिकम् । समताकारणं बाह्यभावभावावलो. सकुंतो प्रमुग्गो समुग्गो अमुद्दो समुद्दो प्रलालं पलालं किनः ।। (प्राचा. सा. ६-१६)। अकुलिया सकुलिया नो पलं प्रसइत्ति पलासो अमाइ. बाद्य पदार्थों की अवस्था के देखने वाले जीव के वाहए माइवाहए अबीवावए बीवावए नो इंद. जो मिट्टी व सुवर्ण, पाषाण व माणिक्य तथा सर्व गोवए इंदगोवे, से तं नोगोण्णे । (अनुयो. स. १३०. और माला प्रादि पदार्थ समता के कारण हैं उन्हें पृ. १४१)। नोकर्मद्रव्यसमता या नोकर्म द्रव्यसामायिक कहा अकुंत-सकुंत, प्रमुद्ग-ममुद्ग, प्रमुद्र-समुद्र, प्रलाल जाता है। पलाल, अकुलिका-सकुलिका, अपलभक्षक-पलाश, अमातृवाहक-मातृवाहक, अबीजवाप-बीजवाप और नोकर्मद्रव्यसंसार-देखो नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन । नोइन्द्रगोप-इन्द्रगोप; इत्यादि निरुक्त्यर्थ से रहित नोकमद्रव्यसंसार औदारिक-वक्रियिकाऽऽहारक तेजस नामों को नोगौण कहा जाता है। जैसे-पूर्वोक्त शरीराणामाहार- शरीरेन्द्रियाऽऽनपान • भाषा-मन: नामों में कुन्त (भाला) से रहित पक्षी को सकुन्त और पर्याप्तीनां विषयः। (चा. सा. पृ.८०)। मुद्ग (नंग) से रहित डिब्बे को समुग्ग (समुदग) प्रौदारिक, वैक्रियिक, प्राहारक और तेजस शरीर प्रादि कहना। तथा प्राहार, शरीर, इन्द्रिय, प्रानपान, भाषा नोगौण्य पद-देखो नोगौण । १. नोगोण्यपदं नाम और मन इन पर्याप्तियों का जो विषय है वह गुणनिरपेक्षमनन्वर्थमिति यावत् । तद्यथा-चन्द्रनोकर्मद्रव्यसंसार कहलाता है। स्वामी सूर्यस्वामी इन्द्र गोप इत्यादीनि नामानि । नोकर्मबन्ध- माता-पितृ पुत्रस्नेहसम्बन्धः नोकर्म (धव. पु. १, पृ. ७४-७५)। २. चंदसामी सूर. बन्धः । (त. वा. ८, पृ. ५६१) । सामी इंदगोव इच्चादिसण्णाम्रो णोगोण्णपदायो, माता, पिता और पुत्र के स्नेह का जो सम्बन्ध है णामिल्लए पुरिसे णामत्था णुवल भादो। (जयध. १, उसे नोकर्मबन्ध कहा जाता है । नोकषायवशार्तमरण-हास्य-रत्यरति शोक-भय- १ गुणनिरपेक्ष अर्थात् अनुगत अर्थ से जो पद रहित जुगुप्सा-स्त्री पुन्नपुंसकवेदे मूढमते मरणं नोकषायव- होते हैं उन्हें नोगौण्यपद कहा जाता है। जैसेसामरणम । (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ.६०)। चन्द्रस्वामी, सूर्यस्वामी और इन्द्रगोप प्रादि नाम । स्य रति, प्ररति, शोक, भय, जगुप्सा, स्त्रीवेद, नोश्रुतप्रत्याख्यान-नोश्रुतप्रत्याख्यान श्रुतप्रत्यापुरुषवेद और नपुंसकवेद इन नोकषायों में मुग्ध हुए ख्यानादन्यत् । (प्राव. नि. मलय. वृ. १०५४)। जीव के मरण को नोकषायवशातमरण कहते हैं। श्रुतप्रत्याख्यान (प्रत्याख्यानपूर्व) से भिन्न को नोनोकषायवेदनीय-देखो अकषायवेदनीय। तथा श्रुतप्रत्याख्यान कहते हैं। यह नोश्रुतप्रत्याख्यान स्त्रीवेदादिनोकषायरूपेण यद्वेद्यते तन्नोकषायवेदनी- मूलगुणप्रत्याख्यान और उत्तरगणप्रत्याख्यान के भेद यम। (श्रा.प्र. १६, धर्मसं. मलय. व. ६१३; से दो प्रकार का है। प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. ४६८)। नोसंज्ञाकरण-१. नोसन्ना बीसस-पनोगे । मोडादि नोकषायरूप से जिसका वेदन किया (प्राव. भा. १५३, पृ. ५५७)। २. नोसंज्ञाकरणं त जाता है उसे नोकषायवेदनीय कहते हैं। यत्करणमपि सन्न तत् संज्ञया रूढं। उक्तं हि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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