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________________ नोमागम मिश्रद्रव्यभाव] ६५१, जैन-लक्षणावली [नोकमंद्रव्यपरिवर्तन णी, वेश्या और अमात्य के समान संसार के बढ़ाने शरीरत्रयस्य षट्पर्याप्तीनां च योग्यपुद्गलानामावाले अध्यवसाय द्वारा परभाव के उपकमण को दानं नोकर्म । (त. वृत्ति श्रुत. १-५)। अप्रशस्त नोग्रागमभावोपक्रम और श्रुत प्रादि के १ कर्मोदयवश जो पुद्गलपरिणाम जीव के सुखनिमित्त प्राचार्यभाव के अवधारणरूप उपक्रम को दुःख का कारण होता है वह नोकर्म कहलाता है। प्रशस्त नोमागमभावोपक्रम कहा जाता है। ईषत् (किंचित् ) कर्मरूप वह नोकर्म प्रौदारिकावि नोग्रागममिश्रद्रव्यभाव-पोग्गल-जीवदव्वाणं सं. शरीरस्वरूप है। जोगो कथंचि जच्चतरत्तमावण्णो णोप्रागममिस्स- नोकर्मद्रव्यनारक-पास-पंजर-जंतादीणि णोकम्मदव भावो णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८४)। दवाणि रइयभावकारणाणि णोकम्मदव्यणेरइमो कथंचित् जात्यन्तर अवस्था को प्राप्त जो पुदगल णाम । (धव. पु. ७, पृ. ३०)। और जीव द्रव्यों का संयोग है वह नोप्रागममिध. नारकभाव के कारणभूत पाश, पंजर और यंत्र द्रव्यभाव कहलाता है। प्रादि को नोकर्मद्रव्यनारक कहा जाता है। नोइन्द्रियप्रणिधि-कोहं माणं मायं लोहं च नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन-देखो नोकर्मद्रव्यसंसार । महब्भयाणि चत्तारि । जो रुंभइ सुद्धप्पा एसो नो. १. नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां इंदिअप्पणिही॥ (दशवं. नि. २९६)। पर्याप्तीनां योग्या ये पुदगला एकेन जीवेन एकस्मिन् कोष, मान, माया और लोभ इन चार महाभयानक समये गृहीताः स्निग्ध-रूक्ष-वर्ण गन्धादिभिस्तीवकषायों को जो रोकता है उस शद्ध प्रात्मा को मन्द-मध्यमभावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिष नोइन्द्रियप्रणिधि कहते हैं। समयेष निर्जीर्णा अगृहीताननन्तवारानतीत्य मिश्रनोइन्द्रियप्रत्यक्ष-१. नोइन्द्रियप्रत्यक्षं तु यदात्मन कांश्चानन्तवारानतीत्य मध्ये गृहीतांश्चानन्तवारानएवालिङ्गिकमवध्यादीति । (अनुयो. चू. पृ. ७५, तीत्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्म. अनुयो. हरि. व. पु. १००)। २. इन्द्रियप्रत्यक्षं न भावमापद्यन्ते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवतं. भवतीति नोइन्द्रियप्रत्यक्षम, नोशब्दः सर्वप्रतिषेधे। नम् । (स. सि.२-१० भ. प्रा. विजयो. १७१ (नन्दी. हरि. व. पृ. २८)। ३. इन्द्रियप्रत्यक्षं तु -अत्र 'मध्ये गृहीतांश्चानन्तवारानतीत्य त एव' यन्न भवति तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षम्, नोशब्दस्य सर्वनि- इत्येतावान् पाठस्त्रुटितः प्रतिभाति; मला. व. षेधपरत्वात, यत्रेन्द्रियं सर्वथैव न प्रवर्तते, किन्तु ८-१४; भ. मा. मला. १७७३)। २. प्रौदारिकजीव एवं साक्षादथं पश्यति तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षम्, वैक्रियिकाहारकशरीरत्रयस्य पर्याप्तिषट कस्य च ये प्रवधि-मनःपर्याय-केवलाख्यमिति भावार्थः । (प्रमयो. योग्यपूदगला: एकेन जीवेन एकस्मिन समोदीला मल. हेम. वृ. १४४, पृ. २१२) । स्निग्ध रूक्ष-वर्ण-गन्धादिभिस्तीव्र-मन्द-मध्यमभावेन १ लिंग के विना-इन्द्रिय प्रादि की सहायता न च यथावस्थिता: द्वितीयादिषु समयेष निर्जी अगलेकर-जीव के जो स्वयमेव अवधि माविरूप ज्ञान हीतान् अनन्तवारान् प्रतीत्य मिश्रितांश्च प्रान्त होता है उसे नोइन्द्रियप्रत्यक्ष कहा जाता है। वारान् प्रतीत्य मध्यमगृहीतांश्च अनन्तवारान प्रतीनोकर्म-१. तदुदयापादितः (कर्मोदयापादितः) त्य त एब पुद्गलाः तेनैव स्निग्धादिभावेन तेनैव पुद्गलपरिणामः प्रात्मनः सुख-दुःखबलाधानहेतुः तीव्रादिभावेन च यथावस्थितप्रकारेण च तस्यैव प्रौदारिकशरीरादिः, ईषत्कर्म नोकर्मेत्युच्यते । (त. जीवस्य नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत् तावत समदितं -वा. ५, २४, ६, पृ. ४८८) । २. नोकर्म च शरीर- सर्व त्रैलोक्यस्थितं पुद्गलद्रव्यं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन स्वपरिणामनिरुत्सूकम् ॥ पुद्गलद्रव्यमाहारप्रभृत्युप- कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-१०)। चयात्मकम् । (त. श्लो. १, ५, ६४-६५)। १ तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य जिन ३. शरीर-पर्याप्तियोग्यपुद्गलादानं नोकर्म। (न्याय- पुद्गलों को एक जीव ने एक समय में ग्रहण किया कु. ७४, पृ. ८०७)। ४. शरीरत्रय-पर्याप्तिषट्क- था वे स्निग्ध-रूक्ष स्पर्श, वर्ण और गन्ध प्रादि से योग्यपदगलपरिणामो नोकर्म । (लघीय. अभय. व. तीव, मन्द या मध्यम भाव से यथावस्थित होते 10 .RE)। ५. प्रौदारिक वैक्रियिकाहारक. द्वितीयमादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। पडसात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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