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________________ नीचैर्वृत्ति] ६४०, जैन-लक्षणावली [नीहारचारण जाति), व्याध, मत्स्यबन्ध (धीवर) और दासता माण-मायबहुलं णिहालुमं सलोहं हिंसादिसु मज्झिप्रादि का निर्मापक है वह नीचगोत्र कहलाता है। मज्झवसायं कुणइ णीललेस्सा । (धव. पु. १६, नोचैर्वृत्ति-१. गुणोत्कृष्टेषु विनयेनावनतिर्नीच. पृ. ४६०)। ४. नील बर्णद्रव्यावष्टम्भान्नीललेश्या । वृत्तिः । (स. सि. ६-२६)। २. गरुष्ववनतिर्नीच. (त. भा. सिद्ध. व. २-६)। ५. कोपी मानी वत्तिः । गुणोत्कृष्टेषु विनयेन अवनतिर्नीत्ति - मायी लोभी रागी द्वेषी मोही शोकी। हिंस्र: क्रू. रित्याख्यायते । (त. वा. ६, २६, ३)। ३. नीच. रश्चण्डश्चौरो मूर्खः स्तब्धः स्पर्धाकारी ॥ निद्रालु: वृत्तिः-अभ्युत्थानासनदानाञ्जलिप्रग्रह-यथाहविन- कामुको मन्दः कृत्याकृत्य[त्या]विचारकः । महामूर्ची यकरण रूपं नीचर्वर्तनम । (त. भा. हरि. व सिद्ध. महारम्भो नीललेश्यो निगद्यते ।। (पंचसं. अमित. वृ. ६-६)। ४. गुरुष्ववनतिर्नीचत्तिः । (त. इलो. १, २७४-७५, पृ. ३५)। ६. निर्बुद्धिर्मानवान् ६-२६)। ५. गुणोत्कृष्टेषु विनयेन प्रह्वीभावः मायी मन्दो विषयलम्पटः । निर्विज्ञानोऽल सो भीरुनीचैर्वृत्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२६)। निद्रालः परवंचकः ॥ नानाविधे धने घान्ये सर्वत्रवा१ जो गुणों से उत्कृष्ट हैं उनको विनयपूर्वक तिमूच्छितः । सारम्भो नीलया प्राणी लेश्यया संयुतो नमस्कार प्रादि करना, इसे नीचंति कहा भवेत् ।। (भ. प्रा. मूला. १६०८)। जाता है। १ जो काम करने में मन्द हो, विचारशून्य हो, नीतिशास्त्र-- तंत्रापायो [वापौ] नीतिशास्त्रम् । विशिष्ट ज्ञान से रहित हो, विषयलोलुपी हो, मानस्वमण्डलपालनाभियोगस्तंत्रम । परमण्डलावाप्स्य- युक्त हो, मायाचारी हो, प्रालसी हो, अभेद्य होभियोगोऽवापः । (नीतिवा. ३०,४५-४७)। जिसके अभिप्राय को समझना अशक्य हो, बहुत जिसक प्राभप्राय अपने राज्य के भलीभांति परिपालन को तंत्र निद्राल हो, दूसरों के ठगने में कुशल हो तथा धनकहते हैं। दूसरे राज्य के प्राप्त करने को अवाप धान्य का तीव्र अभिलाषी हो; उसे नीललेश्या कहते हैं । तंत्र और प्रवाप इन दोनों के प्रतिपादन वाला जानना चाहिए। ४ नील द्रव्य के प्राश्रय से करने वाले शास्त्र को नीतिशास्त्र कहते हैं। नीललेस्या हुआ करती है। नोरजस्क-नीरजस्का इत्यष्टविधकर्मविप्रमूक्ताः । नीलवर्णनाम-जस्स कम्मरस उदएण सरीर(दशवै. सू. हरि. बृ. ३-३४, पृ. ११९) । पोग्गलाणं णीलवण्णो उप्पज्जदि तं णीलवण्णणामं । पाठ प्रकार के कर्म-रज से रहित सिद्ध जीबों को (घब. पु. ६, प. ७४); जस्स कम्मस्स उदएण नीरजस्क कहते हैं। सरीरे णीलवण्णणिप्पत्ती होदि तं णीलवण्णणामं । नोललेश्या-१. मंदो बुद्धिविहीणो णिविण्णाणी (धव. पु. १३, पृ. ३६४) । य विसयलोलो य। माणी माई य तहा प्रालस्सो जिस कर्म के उदय से शरीरपुद्गलों का वर्ण नीला चेव भेज्जो य॥ णिहा-वंचणबहलो घण-घणे होड होता है उसे नीलवर्ण नामकर्म कहते हैं। तिव्वसण्णायो । लक्खणमेयं भणियं समासमो णील- नीवी-प्राय-व्ययविशुद्धं द्रव्यं नीवी। (नीतिवा. लेस्सस्स ।। (प्रा. पंचसं. १, १४४-४५); धव. १८-५२, पृ. १८८)। पु. १, पृ. ३८६ व पु. १६, पृ. ४६०-६१ उद्, प्राय (आमदनी) और व्यय (खर्च) से विशुद्ध गो. जी. ५०६-१०) । २. आलस्य-विज्ञानहानि- (रहित) द्रव्य को नीवी कहते हैं। अमरकोष (२, कार्यानिष्ठापन भीरुता-विषयातिगृद्धि-माया-तृष्णाति- ६८०) के अनुसार नीवी नाम मूल द्रव्य का है। मान-वंचनाऽनृतभाषण-चापलातिलुब्धत्वादि नीलले. नोहारचाररण-नीहारमवष्टभ्याप्कायिकजीवपीश्वालक्षणम् । (त. वा. ४, २२, १०)। ३. कसा. डामजनयन्तो गतिमसङ्गामश्नुवाना नीहारचारणा:। याणुभागफद्दयाणमुदयमागदाणं जहण्णफयप्पहडि (योगशा. स्वो. विव.१-९, प. ४१, प्रव. सारो. जाद उक्कस्सफद्दया त्ति ठइदाणं छब्भागविहत्ताणं व.६०१, पृ. १६६)। xxx पंचमभागो तिब्बयरो, तस्सुदएण जाद- हिम का प्राश्रय लेकर जलकायिक जीवों की विरा. कसानो णीललेस्सा णाम । (धव. पु. ७, पृ. १०४); घना न करते हुए गमन करने वाले साधुओं का दावण्णादिसु पादवविवज्जियं णिविण्णाणं णिब्बुद्धि नीहारचारण कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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