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________________ कषायरसनामकर्म] ३३२, जैन-लक्षणावली [कषायसमुद्घात योगात् मूलोत्तरगुणभृतोऽपि xxx कषायकुशीला अहमस्य स्वामीति वचनानुच्चारणं लोभविवेकः उच्यन्ते । (त. श्लो. ६-४६)। ८. संज्वलनाऽपर. नाहं कस्यचिदीशो न च मम किंचिदिति वचनं वा। कषायोदयरहिताः संज्वलनकषायमात्रवशवर्तिनः ममेदं भावरूपमोहजपरिणामापरिणतिर्भावतो लोभकषायकुशीलाः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४६)। विवेकः । (भ. प्रा. विजयो. १६८)। १ अन्य कषायों के उदय पर विजय पाकर भी जो कषायविवेक द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार केवल संज्वलन कषाय के वशीभूत होते हैं वे कषाय- का है। उनमें भी प्रत्येक काय और वचन के भेद कुशील कहे जाते हैं। से दो प्रकार का है। ये सब क्रोधादि के भेद से कषायरस नामकर्म-जस्स कम्मस्स उदएण सरी- चार चार प्रकार के हैं। यथा-भ्रकुटियों को रपोग्गला कसायरसेण परिणमंति तं कषायरसं णाम। संकोचित करना, नेत्रों का लाल होना, अधरोष्ठ का (धव. पु. ६, पृ. ७५)। दबाना और शस्त्र को समीप करना; इत्यादि जो जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल कषाय रस क्रोध की सूचक शरीर की प्रवृत्ति हुआ करती है से परिणत होते हैं उसे कषायरस नामकर्म कहते हैं। उसका न करना, यह द्रव्यतः कायिक क्रोधकषायकषायलोक-कोधो माणो माया लोभो उदिण्णा विवेक कहलाता है। मैं मारता हूं या ताडित जस्स जंतुणो। कषायलोगं वियाणाहि अणंतजिण- करता हूं, इत्यादि क्रोध के सूचक वचनों का प्रयोग देसिदं ॥ (मूला. ७-५१)। नहीं करना; इसका नाम वाचनिक क्रोधकषायजिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ इन विवेक है। मन में दूसरों के परिभव प्रादि का चारों कषायों का उदय पाया जावे उसे कषायलोक कलुषित विचार न आने देना, इसे भावतः क्रोषजानना चाहिए। विवेक जानना चाहिए। इसी प्रकार से पृथक-पृथक कषायविवेक-द्रव्यतः कषायविवेको नाम कायेन मान, माया और लोभ कषायों के सम्बन्ध में समवाचा चेति द्विविधः-भ्रूलतासंकोचनं पाटलेक्षणता झना चाहिये। अधरावर्मदनं शास्त्रनिकटीकरणम् इत्यादिकायव्या- कषायवेदनीयकर्म-१. तत्र क्रोधादिकषायरूपेण पाराकरणम्, हन्मि ताडयामि शूलमारोपयामि यद्वेद्यते तत्कषायवेदनीयम् । (श्रा. प्र. टी. १६ इत्यादिवचनाप्रयोगश्च । परपरिभवादिनिमित्तचित्त- धर्मसं. मलय. वृ. ६१३; प्रज्ञाप. मलय. व. २३, कलंकाभावो भावतः क्रोधविवेकः । तथा मानकषाय. २६३, पृ. ४६८)। २. जस्स कम्मस्स उदएण जीवो विवेकोऽपि वाक्कायाभ्यां द्विविधः-गात्राणां स्तब्ध- कसायं वेदयदि तं कम्म कसायवेदणीयं णाम। (धव. ताकरणं शिरस उन्नमनम् उच्चासनारोहणादिकं च पु. १३, पृ.३५६)। यन्मानसूचनपरं तस्य कायव्यापारस्याकरणम्, मत्तः २ जिस कर्म के उदय से जीव कषाय का वेदम को वा श्रुतपारगः सुचरितः सुतपोधरश्चेति वचना- करता है उसे कषायवेदनीय (चारित्रमोहनीय का प्रयोगश्च । एवमेवैतेभ्योऽहं प्रकृष्ट इति मनसाहं- भेद) कहते हैं। कषायसमुद्घात-१. द्वितयप्रत्ययप्रकर्षोत्पादितभ्यां मायाविवेको द्विप्रकार:- अन्यं ब्रुवतः इवान्यस्य क्रोधादिकृतः कषायसमुद्घातः। (त. वा. १, २०, यद्वचनं तस्य त्यागो मायोपदेशस्य वा, मायां न १२, पृ. ७७)। २. कसायसमुग्धादो णाम कोघ. करोमि न कारयामि नाभ्युपगच्छामि इति वा कथनं भयादीहि सरीरत्तिगुणविप्फुज्जणं । (धव. पु. ४, वाचा मायाविवेकः, अन्यत् कुर्वत् इवान्यस्य कायेना. प. २६); कसायतिव्वदाए ससरीरादो जीवपदेसाणं करणं कायतो मायाविवेकः। लोभकषायविवेको- तिगुणविप्पुंजणं कसायसमुग्धादो णाम । (धव. पु. ऽपि द्विविधः-यत्रास्य लोभस्तदुद्दिश्य करप्रसारणं ७, पृ. २६६)। ३. तीव्रकषायोदयान्मूलशरीरमत्यद्रव्यदेशानपायिता तदुपादातुकामस्य कायेन निषेधनं क्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति हस्तसंज्ञया निवारणं शिरश्चालनया वा, एतस्य । कषायसमुद्घातः । (बु. द्रव्यसं. १०)। ४. कषायेण कायव्यापारस्य प्रकरणं कायेन लोभविवेकः शरीरेण कषायोदयेन, समुद्घातः कषायसमुद्घातः, स च वा द्रव्यानुपादानम्, एतन्मदीयं वास्तु-ग्रामादिकं वा कषायचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः । Xxx अथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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