SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्रुवसत्ताक ५८४, जैन-लक्षणावली [नक्षत्रमास ध्रुवसत्ताक-ध्रुवं सत् सत्ता यासां ता ध्रुवसत्ता- ६. वर्समानं ध्रुवं प्रोक्तं xxx। (मोक्षपं. काः। (पंचसं. मलय. व. सं. क. ५१, पृ. ५६)। १०)। जिन प्रकृतियों को सत्ता सत्त्वम्युच्छित्ति के होने १ अनादि परिणामिक स्वभाव की अपेक्षा व्यय तक नियम से पाई जाती है उन्हें ध्रुवसत्ताक और उत्पाद सम्भव न होने से जो द्रव्य की स्थिरता प्रकृतियां कहते हैं। है उसका नाम ध्रौव्य है। ध्रुवावग्रह-देखो ध्रुवप्रत्यय । सोऽयमित्यादि ध्वजमुद्रा-संहतो गुलिवामहस्तमूले चाङ्गुष्ठं ध्रुवावग्रहः । (धव. पु. १, पृ. ३५७); णिच्चत्ताए तिर्यग्विधाय तर्जनीचालनेन ध्वजमुद्रा। (निर्वा. गहणं धुवावग्गहो । (धव. पु. ६, पृ. २१)। णक. १६, पृ. ३२।१)। नित्यरूप से जो वस्तु का ग्रहण होता है वह धूवा वायें हाथ की अंगुलियों को मिला कर और उसके वग्रह कहलाता है। जैसे-वह यही है, इत्यादि ।। मूल में अंगूठे को तिरछा रखकर तर्जनी के चलाने से ध्वजमुद्रा होती है। ध्रवोदय-अव्वोच्छिण्णो उदो जाणं पगईण ता . नकर-नकरं प्रकरदायिलोक xxx। (प्रश्नधुवोदइया। (पंचसं. ३, १५६, पृ. ४८); जीवकर्मसम्बन्धादव्यवच्छिन्नो ऽनुसन्ततो यासामुदित व्या. अभय. व. पृ. १७५)। कर (टैक्स) नहीं देने वाले व्यक्ति को नकर कालं यावदुदयस्ता ध्रुवोदयाः, प्रतिनिवृत्तो न भव कहते हैं। तीति भावः । (पंचसं. स्वो. वृ. ३, १५६, पृ. नक्षत्रनाम-से कि तं णक्खत्तणामे ?, २ कित्ति४८)। माहि जाए कित्तिए कित्तिमादिण्णे कित्तिमाघम्मे जिन प्रकृतियों का उदय उदित रहने के काल तक कित्तिपासम्मे कित्तिपादेवे कित्तिपादासे कित्तिमानष्ट नहीं होता है उन्हें ध्रुवोदयी प्रकृतियां सेणे कित्तिपारविखए, रोहिणीहिं जाए रोहिणिए कहते हैं। रोहिणिदिन्ने रोहिणिधम्मे रोहिणिसम्मे रोहिणिदेवे ध्रीव्य-१. अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययो- रोहिणिदासे रोहिणिसेणे रोहिणिरविखए य, एवं दयाभावात् ध्रुबति स्थिरीभवतीति ध्रुवः, ध्रबस्य सम्वनक्खत्तेसु नामा भाणिनव्या । एत्थ संगहणिगाभावः कर्म वा ध्रौव्यम्। (स. सि. ५-३०)। हामो-कित्तिम-रोहिणि मिगसिर-प्रद्दा य पुणव्वसू २. ध्रुवे: स्थर्यकर्मणो ध्रवतीति ध्रवः। प्रनादि. प्र पुस्से प्र। तत्तो प्र अस्सिलेस्सा महा उ दो पारिणामिकस्वभावत्वेन व्ययोदयाभावात् ध्रवति फग्गुणीमो अ॥ हत्थो चित्ता साती विसाहा तह य स्थिरीभवति इति ध्रुवः, ध्रुवस्य भावः कम वा होइ अणुराहा। जेट्ठा मूला पुव्वासाढा तह उत्तरा धोव्यम्, यथा पिण्ड-घटाद्यवस्थासू मदाद्यन्वयात। चेव ॥ अभिई सवण धणिट्ठा सतभिसदा दोहोति (त. वा. ५, ३०, ३) । ३. प्रवेः स्थर्यकर्मणो भद्दवया। रेवई अस्सिणि भरणी एसा नक्खत्तपरिध्रुवतीति ध्रुवस्तस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्। वाडी ।। (अनुयो. सू. १३०, पृ. १४५) । (त. श्लो. ५-३०)। ४. अनादिना स्वभावेन तद् कृत्तिका प्रादि किसी नक्षत्र के प्राश्रय से किसी के ध्रौव्यं ब्रूवते जिनाः। (त. सा.३-८)। ५. पूर्वो- नाम की जो स्थापना की जाती है उसे नक्षत्रनाम तरभावोच्छेदोत्पादयोरपि स्वजातेरपरित्यागो ध्रो. कहा जाता है। जैसे-कृत्तिका में उत्पन्न होने वाले व्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १०)। ६. काल- मास को कातिक और कृत्तिका से दिये गये को त्रयानुयायित्वं यद्रूपं वस्तुनो भवेत् । तद् ध्रौव्यत्व- कृत्तिकादत्त कहा जाता है, इसी प्रकार कृत्तिकामिति प्राहुर्वृषभाद्या: गणाधिपाः॥ (भावसं. वाम. धर्म, कृत्तिकाशर्म, कृत्तिकादेव, कृत्तिकादास, कृत्ति. ३७६)। ७. प्रवति स्थिरीसंपद्यते यः स ध्रुवः, कासेन और कृत्तिकारक्षित प्रादि कृत्तिकाश्रित तस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम् । (त. वृत्ति अत. अन्य नामों को तथा रोहिणी प्रादि शेष प्रन्य नक्षत्रों ५-३०)। . तद्भावाव्ययमिति वा ध्रौव्यं तत्रापि के प्राश्रित नामों को भी जानना चाहिए। सम्यगयमर्थः । यः पूर्व परिणामो भवति स पश्चात् नक्षत्रमास-१. नक्खत्तो खलु मासो सत्तावीसं स एव परिणामः ॥ (पंचाध्या. १-२०४)। भवे अहोरता। अंसा य एकवीसा सत्तढिकएण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy