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________________ प्रस्तावना उसका लक्षण इस प्रकार प्रकट करते हैं-निश्रित का अर्थ लिंग से जाना गया है, जैसे जूही के फलों के अतिशय शीत, मृदु और स्निग्ध आदि स्पर्श का अनुभव पूर्व में हुआ था, उस अनुमान से लिंग के द्वारा उस विषय को न जानता हुमा जो उसका ज्ञान प्रवृत्त होता है उसे अनिश्रित-अवग्रह कहते हैं। धवलाकार तीन स्थलों पर उसका लक्षण पृथक-पृथक् इस प्रकार करते हैं। पु. ६-अनभिमुख अर्थ के ग्रहण को अनिःसृतावग्रह कहते हैं, अथवा उपमान-उपमेय भाव के बिना जो ग्रहण होता है उसे अनिःसृतावग्रह जानना चाहिए । पु. ६-वस्तु के एकदेश के प्राश्रय से समस्त वस्तु का जो ग्रहण होता है. यह अनिःसृतावग्रह कहलाता है, अथवा बस्तु के एकदेश या समस्त ही वस्तु के पालम्बन से जो वहां असंनिहित अन्य वस्तु का बोध होता है, यह भी अनिःसृतप्रत्यय कहलाता है । पु. १३-पालम्बनीभूत वस्तु के एकदेश के ग्रहण समय में जो एक वस्तु का ज्ञान होता है उसे, अथवा वस्तु के एकदेश के ज्ञान के समय में ही दृष्टान्त के आश्रय से अथवा अन्य प्रकार से भी जो अनवलम्बित वस्तु का ज्ञान होता है उसे, तथा अनुसन्धानप्रत्यय और प्रत्यभिज्ञान को भी अनिःसतप्रत्यय कहते हैं। __इस प्रकार उपयुक्त अनिःसृतावग्रह के लक्षणों में अनेकरूपता उपलब्ध होती है। उक्त लक्षणों का फलितार्थ ऐसा प्रतीत होता है १. त. वा.-पूर्णतया अनुच्चारित शब्द का ग्रहण, वस्तु के एकदेशगत वर्णादि के देखने से समस्त वस्तुगत वर्णादि का ज्ञान, अन्यदेशस्थ पंचरंगे किसी एक वस्त्रादि के कथन से अन्य प्रकथित का ग्रहण। २. त. व. हरि.-अन्य शब्द निरपेक्ष शब्द का ग्रहण । ३. त. वृ. सिद्ध-लिंगनिरपेक्ष ग्रहण । ४. धवला-अनभिमुख अर्थका ग्रहण, उपमान-उपमेय भाव के बिना होने वाला ज्ञान, वस्तु के एकदेश से समस्त वस्तु का तथा असंनिहित अन्य वस्तु का ग्रहण एवं अनुसन्धानप्रत्यय आदि। अनुक्त-अवग्रह-सर्वार्थसिद्धि में इसका लक्षण 'अभिप्राय से ग्रहण' कहा गया है। तत्त्वार्थवार्तिक में इस लक्षण का अनुसरण करते हुए प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है कि श्रोत्र इन्द्रियादि के ष्ट विशुद्धि परिणाम के निमित्त से एक वर्ण के भी न निकलने पर अभिप्राय से ही अनुच्चारित शब्द का जो अवग्रह होता है उसका नाम अनुक्त-अवग्रह है। अथवा स्वर-संचार के पहले बाजे को विवक्षित स्वर-संचार के अनुरूप करते हुए देखकर अवादित शब्द को जान लेना कि आप इस शब्द को (स्वर को) बजाने वाले हैं, इस प्रकार के ग्रहण को अनुक्तावग्रह कहा जाता है। आगे चक्षु इन्द्रिय के आश्रय से उदाहरण देते हुए कहा गया है कि किसी को शक्ल व कृष्ण प्रादि वर्गों का मिश्रण करते हुए देखकर यह बिना कहे ही जान लेना कि आप अमुक वर्ण इनके मिलाने से तैयार कर रहे हैं, यह अनुक्तावग्रह है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा गया है कि स्तोक पुद्गल के निकलने से जो बोध होता है वह अनुक्तावग्रह कहलाता है। ___ तत्त्वार्थभाष्यानुसारी सूत्रपाठ में प्रकृत सूत्र (१-१६) में 'अनुक्त' के स्थान में 'असन्दिग्ध' पाठ है। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार सिद्धसेन गणी कहते हैं कि 'उक्तमवगृह्णाति' यह विकल्प एक श्रोत्रावग्रह को ही विषय करता है, वह सर्वव्यापी नहीं है । कारण यह कि उक्त का अर्थ शब्द है और वह भी अक्षरात्मक शब्द । इसका अवग्रह एक मात्र श्रोत्रावग्रह ही हो सकता है। अनुक्त जो उक्त से विपरीत अनक्षरात्मक शब्द है उसके अवग्रहण का नाम अनुक्तावगृह होगा। इसमें चंकि अव्याप्ति दोष सम्भव है, अतः दूसरों ने उसके स्थान में निश्चितमवगृह्णाति' इस विकल्प को स्वीकार किया है। उदाहरण इसके लिए यह दिया गया है-स्त्री के स्पर्शविषयक प्रवग्रह से स्त्री का ही ज्ञान होता है तथा पुष्पों या चन्दन के स्पर्श से पुष्पों या चन्दन का ही ज्ञान होता है। घवलाकार अनुक्तावग्रह (अनुक्तप्रत्यय) के लक्षण में कहते हैं कि विवक्षित इन्द्रिय के प्रतिनियत गुण से विशिष्ट वस्तु का जब बोध होता है तब उस इन्द्रिय के अनियत गुण से विशिष्ट उक्त वस्तु का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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