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________________ जैन-लक्षणावली प्राधाकर्म का स्वरूप प्रगट करते हुए कहा गया है कि वृक्षों को काटकर लाना, इंटों का पकाना, भूमि को खोदना, पत्थर और बालू आदि से पूर्ण करना, पृथिवी का कूटना, कीचड़ (गारा) करना, कीलों का करना, अग्नि से लोहे को तपाकर धन से पीटना और पारी से लकड़ी चीरना; इत्यादि व्यापार से छह कायिक जीवों को बाधा पहुँचा कर जो वसति स्वयं निर्मित की जाती है या दूसरे से करायी जाती है उसे प्राधाकर्म शब्द से कहा जाता है। यह लक्षण प्रायः पिण्डनियुक्ति जैसा है। विशेष इतना है कि पिण्डनियुक्ति में उक्त लक्षण आहार के प्रकरण में कहा गया है, और यहाँ कि वह वसति के प्रकरण में कहा गया है, अतः वसति के विषय में सम्भव दोषों को ही यहाँ प्रगट किया गया है। शीलांकाचार्य के अभिप्रायानुसार साधु के लिए जो सचित्त को प्रचित्त किया जाता है या अचित्त को पकाया जाता है, यह प्राधाकर्म है। लगभग यही अभिप्राय प्राचार्य हेमचन्द्र भी निरुक्तिपर्वक (प्राधाय विकल्प्य यति मनसि कृत्वा सचित्तस्याचित्तकरणमचित्तस्य वा पाको निरुक्तादाधाकर्म) योगशास्त्र में प्रगट करते हैं। अनादेय, प्रादेय-इन दोनों के लक्षणों में कुछ भेद देखा जाता है । सर्वार्थसिद्धि आदि में उनके लक्षण में कहा गया है कि जो नामकर्म प्रभायुक्त शरीर का कारण है वह प्रादेय और उससे विपरीत अनादेय कहलाता है। तत्त्वार्थ भाष्य में प्रादेयभाव के निवर्तक कर्म को आदेय और विपरीत को अनादेय बतलाया गया है। इसको स्पष्ट करते हुए हरिभद्र सूरि और सिद्धसेन गणी कहते हैं कि जिस जीव के प्रादेय नामकर्म का उदय होता है बह जो कुछ भी कहे उसे लोग प्रमाण मानते हैं तथा उसे देखते ही वे खड़े होते हए उच्चासनादि देकर सम्मानित करते हैं, इस प्रकार उनके अभिप्रायानुसार जो मादरोत्पादन का हेतू है वह प्रादेय और उससे विपरीत अनादेय माना गया है। धवलाकार के मत से प्रादेय नामकर्म वह है जिसके उदय से जीव को प्रादेयता प्राप्त होती है, यता का अभिप्राय वे गृहणीयता या बहुमान्यता प्रगट करते हैं । अनादेय के लक्षण में वे कहते हैं कि जिस कर्म के उदय से उत्तम अनुष्ठान करता हना भी जीव गौरवित नहीं होता है वह अनादेय कहलाता है। प्राचार्य वसुनन्दी मूलाचार की वृत्ति में पूर्वोक्त दोनों ही प्रकार के लक्षणों को इस प्रकार से व्यक्त करते हैं-जिसके उदय से प्रादेयता-प्रभोपेत शरीर-होता है वह, अथवा जिसके उदय से जीव प्रादेयवाक्य होता है वह, प्रादेयनामकर्म कहलाता है । उक्त दोनों प्रकार के लक्षणों में से प्रादेयता-आदरपात्रता-रूप प्रादेय के लक्षण में श्वे. ग्रन्थकार प्रायः एकमत हैं, पर दि. ग्रन्थकारों में कुछ मतभेद रहा दिखता है। अनिश्रित, अनिःसत-बहु व अल्प प्रादि बारह पदार्थों के प्राश्रय से अवग्रहादि में से प्रत्येक के १२-१२ भेद होते हैं। उनमें एक अनिश्रित या अनिःसृत अवग्रह है। तत्त्वार्थवार्तिक में उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अतिशय विशुद्धि से युक्त श्रोत्र आदि के परिणाम के निमित्त से जिसका पूर्ण रूप से उच्चारण नहीं किया गया है उसका जो ग्रहण होता है उसे अनिःसृत अवग्रह कहते हैं । आगे चक्षु इन्द्रिय के प्राश्रय से यह कहा गया है कि पांच वर्ण वाले वस्त्र, कम्बल व चित्रपट प्रादि के एकदेश विषयक पांच वर्ण के ग्रहण से समस्त पांच वर्षों के दृष्टिगोचर न होने पर भी सामर्थ्य से जो उनका ग्रहण होता है, यह अनिःसृतावग्रह कहलाता है। अथवा किसी अन्य देश में स्थित पांच वर्ण बाले एक वस्त्र प्रादि के कथन से जिसका पूर्णरूप से कथन नहीं किया गया है उसके भी एकदेश के कथन से जो उनका ग्रहण हो जाता है, इसका नाम अनिःसृत-अवग्रह है। हरिभद्र सूरि तत्त्वार्थसूत्र (१-१६) की टीका में उसके लक्षण में कहते हैं कि मेघशब्द प्रादि से भेरीशब्द के प्रयग्रहण के समान अन्य की अपेक्षा से रहित जो बेण प्रादि के शब्द का ग्रहण मनिश्रित प्रवग्रह कहते हैं। यह लमणनिर्देश परम्याख्या के अनुसार किया गया है। प्राचार्य सिरसेन गणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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