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________________ एकान्त २६७, जैन-लक्षणावली [एकाश (स)न जो उपासक ग्यारह मास तक परिग्रह से रहित तमिथ्यात्वम् । (गो. जी. म. प्र. टी. १५)। ८. होकर मनि के वेषस्वरूप रजोहरणादि को धारण इदमेव इत्थमेवेति धमिधर्मयोविषये अभिप्रायः, पुमाकरता है, केशलोंच करता है, स्वाधीन गोकुल आदि नेवेदं सर्वमिति, नित्य एवानित्य एवेतिवाऽभिनिवेश में रहता है, तथा 'धर्मलाभ' शब्द का उच्चारण न एकान्तमिथ्यादर्शनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-१)। करके 'प्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो' ६. जीवादि वस्तु सर्वथा सदेव सर्वथाऽसदेव, ऐसा कहता है; इस प्रकार जो उत्तम साधु के सर्वथा एकमेव सर्वथा अनेकमेवेत्यादि प्रतिपक्षसमान पाचरण करता है; वह ग्यारहवीं प्रतिमा निरपेक्षकान्ताभिप्राय एकान्त मिथ्यात्वम् । (गो. का धारक होता है। जी. जी. प्र. टी. १५)। एकान्त-जं तं एयाणंतं तं लोगमज्झादो एगसेढिं २ पदार्थ अस्तिरूप ही है अथवा नास्तिरूप ही है, पेक्खमाणे अंताभावादो एयाणंतं । (धव. पु. ३, एक ही है अथवा अनेक ही है, सावयव ही है अथवा निरवयव ही है, तथा नित्य ही है अथवा अनित्य ही लोक के मध्य से एक ओर आकाशप्रदेशपंक्ति के है। इत्यादि प्रकार के एक ही धर्म के अभिनिवेश देखने पर चूंकि अन्त सम्भव नहीं है, अतः इसे या आग्रह को एकान्तमिथ्यात्व कहते हैं। एकानन्त कहा जाता है। एकान्तसात-जं कम्मं सादत्ताए बद्धं असंछुद्ध एकान्त-प्रसात-जं कम्मं असादत्ताए बद्धं असं. अपडिच्छुद्धं सादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंतसादं । छुद्ध अपडिच्छुद्धं प्रसादत्ताए वेदिज्जदि तमेयंत- (धव. पु. १६, पु. ४९८)। असादं । (धव. पु.१६, पृ. ४९८)। जो कर्म सातास्वरूप से बन्ध को प्राप्त होकर संक्षेप जो कर्म असातारूप से बन्ध को प्राप्त होकर संक्षेप व प्रतिक्षेप से रहित होता हा सातास्वरूप से वेदा व प्रतिक्षेप से रहित होता हुआ असातस्वरूप से जाता है— अनुभव में प्राप्त होता है-उसे एकान्तवेदा जाता है-अनुभव में प्राता है-उसे एकान्त- सात कहते हैं। प्रसात कहते हैं। एकावग्रह–एकस्सेव वत्थुवलंमो एयावग्गहो । एकान्त मिथ्यात्व-१. तत्र इदमेव इत्थमेवेति xxx एयवत्थुग्गाहो अवबोधो एयावग्गहो घमिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः। (स. सि.८-१: उच्चदि।xxxविहि-पडिसेहारद्धमेयं वत्थ, तस्स त. वा. ८, १, २८)। २. अत्थि चेव णत्थि चेव, उवलंभो एयावग्गहो । (धव.पु. ६, पृ. १६)। एगमेव अणेगमेव, सावयबं चेव णिरवयवं चेव, विधि-प्रतिषेधात्मक एक ही वस्तु के उपलम्भ कोणिच्चमेव अणिच्चमेव, इच्चाइग्रो एयंताहिणिवेसो जानने को-एकावग्रह कहते हैं। एयंतमिच्छत्तं । (धव. पु. ८, पृ. २०)। ३. एका- एकाश (स)न-१. एक्कं असणं अहवा वि आसणं न्तमिथ्यात्वं नाम वस्तुनो जीवादेनित्यत्वमेव स्व. जत्थ निच्चलपूयस्स । तं एक्कासणमुत्तं इगवेलाभावो न चानित्यत्वादिकम् । (भ. प्रा. विजयो. भोयणे नियमो ॥ (प्रत्याख्यानस्व. १०७)। २. -१-२३)। ४. यत्राभिसन्निवेश: स्यादत्यन्तं धर्मि- २. एकस्थानं स्थितभोजनम् । (प्राय. स. टी. १, धर्मयोः । इदमेवेत्थमेवेति तदैकान्तिकमुच्यते ॥ (त. २)। ३. एकस्थानं सकृदभुक्तम् । (अमित. श्रा. सा. ५-४)। ५. क्षणिकोऽक्षणिको जीवः सर्वदा ६-६१)। ४. एकं सकृदशनं भोजनम्, एक वाऽऽसनम् सगुणोऽगुणः । इत्यादिभाषमाणस्य तदैकान्तिकमि- पूताचलनतो यत्र तदेकाशनमेकासनं च। (योगशा. ष्यते ॥ (अमित. श्रा. २-६)। ६. इदमेवेत्थमेवेति स्वो. विव. ३-१३०); एक्कासणगं पच्चक्खाइ चउसर्वथा धर्मधर्मिणोः । ग्राहिका शेमूषी प्राज्ञैरकान्ति- विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अण्णत्थकमुदाहृतम् ।। (पंचसं. अमित. ५-२६) । ७. सर्व- णाभोगेण सह सागारेण सागारि अगारेणं आउंटणथाऽस्त्येव नास्त्येवैकमेवाऽनेकमेव नित्यमेवाऽनित्य- पसारणणं गुरु अब्भदाणेणं पारिद्रावणियागारेणं मेव वक्तव्यमेवाऽवक्तव्यमेव जीवादिवस्तु इत्यादि- महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्ति अगारेणं बोसिरइ । प्रतिपक्षनिरपेक्षसर्वथानियम एकान्तः, तच्छद्धानमेका- (योगशा. स्वो, विव. उद. ३-१३०, पृ. २५२)। ल, ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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