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________________ १८ जैन-लक्षणावली ग्रन्थ है। इसमें ६५ पद्यों के द्वारा महावीर जिनेन्द्र की स्तुति की गई है। इसकी सूचना प्रयम पद्य में ही कर दी गई है । देवागम स्तोत्र में वीर जिनके महत्त्वविषयक ऊहापोह करते हुए अज्ञानादि दोषों और ज्ञानावरणादि कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाने के कारण महावीर जिनमें सर्वज्ञता व वीतरागता सिद्ध की जा चुकी है। यही उनकी महानता है। यहाँ चतुर्थ पद्य में इसी की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि हे वीर जिन, ग्राप चंकि ज्ञानावरण और दर्शनावरण के नाश से प्रगट हए निर्मल ज्ञान-दर्शन रूप शुद्धि के साथ अन्तराय के क्षय से उत्पन्न वीर्यविशेष रूप शक्ति की भी चरम सीमा को प्राप्त हो चुके हैं, अतएव ग्राप मोक्षमा के नेता होते हुए महान् (परमात्मा) हैं, यह कहने के लिए हम सर्वथा समर्थ हैं । इस प्रकार से स्तुति करते हए पागे भेद-अभेद और नित्य-अनित्य प्रादि एकान्तवादों की समीक्षापूर्वक स्याद्वादसम्मत उन भेदाभेद आदि को सुप्रतिष्ठित किया गया है। इसके ऊपर प्राचार्य दिद्यानन्द (विक्रम की हवीं शताब्दी) विरचित टीका है जो ग्रन्थगत गूढ़ अर्थ के प्रगट करने में सर्वथा समर्थ हे । इस टीका के साथ वह मा. दि. जैन ग्रन्थमाला समिति बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अनेक व अर्थ (द्रव्य) आदि शब्दों में हुआ है। २०. स्वयम्भूस्तोत्र-यह कृति भी उक्त प्राचार्य समन्तभद्र की है। इसमें १४३ पद्यों के द्वारा वृषभादि २४ तीर्थ करों की पृथक् पृथक् स्तुति की गई है। यह स्तोत्र भी अर्थगम्भीर है। इसे बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र भी कहा जाता है। प्राचार्य समन्तभद्र जहाँ अपूर्व दार्शनिक थे, वहाँ वे एक महान् कवि भी थे। यह उनकी कृति विविध अलंकार युक्त सुन्दर पद्यों से अलंकृत है। अन्तिम महावीरस्तुति के तो सब (८) ही पद्य यमकालंकार से सुशोभित हैं। इसके ऊपर प्रा. प्रभाचन्द्र (वि. की १३वीं शती) विरचित एक संस्कृत टीका भी है जो दोशी सखाराम नेमिचन्द शोलापुर द्वारा प्रकाशित की जा चुकी है। इसका उपयोग अजित और अनेकान्त आदि शब्दों में हमा है। २१. रत्नकरण्डक-यह एक श्रावकाचार सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके रचयिता भी उक्त समन्तभद्राचार्य हैं । ग्रन्थ पांच परिच्छेदों में विभक्त है। श्लोकसंख्या १५० है। प्रथम परिच्छेद में धर्म के स्वरूप का निर्देश करते हुए सम्यग्दर्शन का महत्त्व प्रगट किया गया है । द्वितीय परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का. ततीय परिच्छेद में पांच प्रणवतों और तीन गुणवतों का, चतुर्थ परिच्छेद में चार शिक्षाव्रतों का, तथा पांचवें परिच्छेद में अन्तिम सल्लेखना के साथ ग्यारह प्रतिमानों का भी निरूपण किया गया है। इसके ऊपर प्रभाचन्द्राचार्य (वि. की १३वीं शती) विरचित एक संक्षिप्त संस्कृत टीका भी है। इस टीका के साथ मूल ग्रन्थ मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा प्रकाशित हो चुका है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है मूल-अचौर्याणुव्रत, अणुव्रत, अधर्म, अनर्थदण्डविरति और अपध्यान आदि । टीका-प्रतिभारवहन, अतिभारारोपण, अतिलोभ, अतिवाहन और अनगार आदि । २२. सर्वार्थसिद्धि-यह प्राचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या है । प्राचार्य पूज्यपाद का दूसरा नाम देवनन्दी भी रहा है। इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है। प्राचाय पूज्यपाद सिद्धान्त के मर्मज्ञ थे। उनके द्वारा षटखण्डागम आदि सिद्धान्त ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया गया था। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के 'सत्संख्या-क्षेत्र ..' आदि सूत्र (१-८) की जो विस्तृत व्याख्या की है वह गम के अाधार से ही की है । इसमें कितने ही सन्दर्भ उक्त षट्खण्डागम के छायानुवाद के समान हैं । प्रा. पूज्यपाद ने 'तत्प्रमाणे' (१-१०) और 'अर्थस्य' (१-१७) प्रादि सूत्रों की व्याख्या दार्शनिक पद्धति से की है। उनका 'जैनेन्द्र व्याकरण' भी प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रा. पूज्यपाद बहुश्रुत विद्वान् प्रस्तुत ग्रन्थ का नवीन संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हना है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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